
"मैं जानू, अल्ले आई जूंल" - ताईजी की इस आवाज से पूरा घर गूंजने लगा| और भला गूंजता भी क्यों नहीं क्योंकि पूरे घर का सारा काम उनकी देख रेख के बिना चल ही नहीं पाता था| सुबह की परिवार की सैर से लेकर रात तक गाय-भैंसों के चारे और फिर घर के सारे काम निपटाने तक उनका शरीर और मस्तिष्क लगातार काम करता बिना थके बिना रूके| हां थकती तो होंगी जरूर पर, उनके चेहरे ने इन शिकन को छिपाना शायद सीख लिया था या फिर शायद घर की जिम्मेदारियां उन्हें आराम ही नहीं करने देती थीं|
खैर, ताईजी सुबह की सैर पर निकलीं और इस सैर पर मैं उनकी साथी हुआ करती हूँ| इस 30-45 मिनट की सैर में वह (ताईजी) खुद को पूरी तरह प्रकृति को समर्पित कर देतीं| स्वर्गीय ताऊजी द्वारा रोड के किनारे लगाए गए पौधे अब बड़े हो चुके हैं और वह उन बड़े पौधों को प्रेम से निहारतीं रहतीं और बीते वक्त में वापस जाकर कुछ पल जिंदगी के याद कर आंखों में मोती भर लेती और वो मोती उनके गालों से ऐसे बहते जैसे कोई माला टूट कर बिखर गयी हो मैं उन्हें वह लम्हें जी लेने देती क्योंकि शायद जो महसूस कर रहीं होती हैं मैं वो सोच भी नहीं सकती हूँ और इस तरह से हम सैर करने वाले व्यक्ति दो से तीन हो जाते हैं, मैं ताईजी और स्वर्गीय ताऊजी की स्मृतियाँ|
सैर करते हुए हम अनेकों बातें करते, प्रकृति और पर्यावरण के बारे में| सैर से वापस आकर ताईजी भाभी द्वारा गाय और भैंसों का निकाला हुआ दूध बाजार बेचने के लिए ले जाया करती हैं और इस दौरान भाभी घर के काम निपटा दिया करतीं हैं| ताईजी वापस आकर बाजार से घर की जरूरत के सामान को एक-एक करके अपने नीले रंग फूल बने हुए झोले से बाहर निकालती