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शुरुआत घर से....

आज हम ऐसे वक्त में जी रहें है, जहां रिश्तों ने अपनी समझदारी को दी है। आज घर-परिवार, रिश्ते-नाते सभी में लोग पहले अपने मन की कर रहे है, कोई भी किसी की भावनाओं की कद्र नहीं कर रहा। कुछ परिवार हैं जो आज भी अपने परिवारों में अपना पन बनाए हुए हैं। लेकिन उससे जब नीचे आता हूं तो यह आपसी लेनदेन, जरूरत पर आकर खतम हो रहे हैं। देखा जाए तो ज्यादातर दिल दुखाने का ही काम कर रहे है। ज्यादातर पहले मैं, और मेरा में यकीन करने लगे है, मन की करने लगे है।

मैं यह नहीं कह रहा के अपने मन की नहीं करनी चाहिए, लेकिन घर में, परिवार में अगर हमने दिल दुखाने का, अपना पन नहीं रखने का बीड़ा ही उठा रखा है तो बही सही।  तो इससे यही होगा फिर जो स्वतंत्रता है, आजादी है बो खो जाएगी।
क्योंकि संस्कार, अपना पन तभी टिक सकेंगे जब हम एक दूसरे की भावनाओं की कद्र करेंगे।
हमारे माता पिता की इच्छा है, के बच्चे कुछ बन जाएं, सफल हो जाएं और हमारी इच्छा है के हम जिंदगी जीने की जल्दबाजी में कहीं अटक जाएं।
अगर हमें अपनी जिंदगी में सब कुछ खूबसूरत चाहिए ही, तो क्यूं ना पहले सफलता को चुना जाए, उस नॉलेज को चुना जाए जो हमे पहले अंदर से खुश होने के बारे में बताती है।
जो हमें जिंदगी जीना सिखाती है।
अगर हम अपने माता पिता को यकीन दिला पाते हैं के पहली सफलता और जिंदगी में जो भी करूंगा/करूंगी, खुश होने, कुछ बेहतर करने के लिए ही करूंगा/करूंगी।
तो क्या कुछ बेहतर नहीं होता, जरूर होता।
यही बात मैं माता पिता के लिए भी कहना चाहता हूं,
के अगर हम भी बच्चों को यकीन दिला पाते के तुम जिंदगी में जो भी पाना चाहते हो पाने के लिए आगे बड़ो, रास्ते तलाशो, और अपनी मंजिल को पा कर ही दम लेना।
तो शायद बो बच्चे जो अपने ही घर के कामों में फंस जाते है या किसी हुनर को अंदर ही अंदर दवा जाते है,बाहर नहीं ला पाते।
अगर उनके दिल की बात हमनें पूछी होती,  तो क्या बो ज्यादा खुश नहीं होते।
हां मैंने माना के किसी घर में रुपए की कमी हो सकती है, बाहरी परिस्थितियां शायद वैसी न रहें, लेकिन हुनर, इच्छाएं सभी में होती हैं।
अगर यह दबी रह जाएं तो क्या यह गुस्से का रूप नहीं लेंगी? क्योंकि कोई घर या रिश्ते तभी बने रह सकते है, जब वहां प्यार और दोस्ती, एक दुसरे की इच्छाओं की कद्र हो। जहां यह एक साथ मौजूद हैं, वहीं स्वतंत्रता बनी रह सकती है, तभी संस्कार भी बने रह सकते है।
कृष्ण ने गीता में साफ कहा है, के इस मन को मित्र बनाया, तो यह मित्र की तरह काम करेगा और अगर दुश्मन बनाया, तो यह दुश्मन की तरह काम करेगा।
तो क्यों न हम घर परिवार में पहले मन की इच्छाओं को पूछने से, उनकी सोंच को समझने से शुरुआत की जाए।
अगर हम उन्हें सही से समझेंगे, सुनेंगे, फिर बही करेंगे, तो गलत कहां होगा।
यही नियम बच्चों पर भी लागू होता है, अगर आप अपने दिल की पूरी बात बताएंगे ही नहीं तो आपको कैसे कोई समझ पाएगा।
या फिर आप उस युग में जी रहें हो, जहां कुछ न बोलना पड़े और लोग बिना बोले ही समझ जाएं। आप अंदाजा लगा सकते हैं।
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