युगों सृजन का नाद हुआ,
पर माटी अज्ञानी थी।
भटक रही थी दर दर कानन,
बस मूल चेतना जानी थी।।
मानव काया ओढ़ के आया,
ढोर बसर रास न आया।
उत्कंठा की तृष्णा जागी,
ज्ञान गति में गोत लगाया।।
स्वयं गुरु बन स्वयं ही चेला,
मानुष ने सदियों तक झेला।
अथाह ज्ञान का संचय करके,
अब आई दीक्षा की बेला।।
शुष्क धरा सा प्यासा तरसा,
चहुँ ओर जग जन जिज्ञासा।
जुड़े लोग शिक्षा के मंदिर,
गुरु ज्ञान की कर दो वर्षा।।
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