
बुरा ये दौर है सब असलहे इतरा रहे हैं
के उनके डर से ज़िंदा आदमी घबरा रहे हैं
करें उम्मीद किससे तीरगी के ख़ात्मे की
उजाले ख़ुद ही रह-रहकर के ज़ुल्मत ढा रहे हैं
खज़ाना है सभी के पास रंगीं हसरतों का
सुकूँ के चंद सिक्के फिर भी क्यूँ ललचा रहे हैं
सहारा झूठ का लेते हैं जो हर बात पर वो
हमें सच बोलने के फ़ायदे गिनवा रहे हैं
उधर चुपचाप लूटे जा रही सब कुछ सियासत
इधर हम खुल के नग्में इन्क़लाबी गा रहे हैं
यूँ कब तक सिर्फ़ हंगामों से बहलाओगे यारों
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