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“ठहरा हूँ …”

ठहरा हूँ …”


ठहरा हुआ हूँ कब से,

बस इसी इंतेज़ार में,

के कब तुम मेरा हाथ थामे,

मुझे जन्नत ले चलो,

और मैं तुम्हें चाँद की

सैर कराऊँअपनी पीठ पर,

ताक़ि तेरे क़दम ना थके,

और बस देखता रहूँ

तेरी निगाहों में,

तलाश करूँ अक़्स मेरा.

की कहीं निकल तो नहीं गया,

तेरे अश्क़ के संग बहता हुआ।

ठहरा हूँ…!


ठहरा हुआ हूँ कब से,

बस इसी इंतेज़ार में,

के कब तुम समा जाओ,

मेरी मुरझाई आग़ोश में,

और खिला दो बगिया प्रेम की,

जो मुरझा गई थी,

तेरी मोहब्बत की बारिश के लिए,

बस बचे थे काँटे जिसमें,

आज कलियाँ खिल रही हैं,

फ़ुल महताब का,

देखोकैसे महक रहा है,

तेरी साँसों की ख़ुशबू लिए। 

ठहरा हूँ…!


Tag: poetry और2 अन्य
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