
“राजनीति या अनीति”
स्वप्न में सोया हर वो मानव
जो कहे राजनीति में कहाँ दानव
प्रपंचों और कुंठा से ग्रसित
राजनीति हो रही अनैतिक।
कभी किसी कालखण्ड में
राजनीति जुड़ी मनु-स्मृति से
अब तार तार कर रही सभ्यता
खंडित करती देश की संप्रभुता।
शृगाल, गिद्धों, सर्पों से आच्छादित
विकृत और तिरस्कृत,
जिह्वा अंगारित, विष दंश लिए,
नग्न नाच करती, मलेच्छित।
कहते सभी की
राजनीति है कमल कीच का
हस्त मलीन करना
कार्य सिर्फ़ अब नीच का
अपितु इसी कीच में
उपज रहा शैल तृष्णा का
और गिर रहे, कूद रहे,
लिपट रहे इस तमस् से
पाने यह पुष्प निज-स्वार्थ का।
क्यूँ झेल रहे
इन दुर्दांत दस्युओं को
क्यूँ सेल रहे
इन मानवता के भक्षियों को
नपुंसक हम, कब कैसे हो गए?
इन भेड़ियों के भक्त कैसे हो गए?
व्यापार इनका
द्वेष, आतंक, लिप्सा युक्त
तिजोरियाँ भरने हेतु
देश प्रेम से होते विमुख
धर्म-जात-पात पर दंगा कराते
भाई को भाई से मरवाते
और सींच रहे इस रुधिर से
अपने स्वार्थ वृक्ष को
फलित करते इनके जैसे
अनगिनत दनुज को
जो श्वान