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“क़दम ठहर गए”
उम्र के ऐसे पायदान पर अब आ पहुँचे हैं
ख़्वाहिशों को तकिए के नीचे दबा बैठें हैं
कहीं बिस्तर पर सिलवटें ना पड़ जाए
इस तरह समेटे ख़ुद को पत्थर बना बैठें हैं।
आशियाना बनाया था बड़ी शिद्दत से
आज दीवारें उसकी बेआबरू हो रही हैं
नींव जो रखी थी ईमान और मेहनत से
आज नई पीढ़ी उन्हें खोखला कर रहीं हैं।
एक वो ज़माना जी लिया हमनें भी सुनो
शर्म आँखों का काज़ल हुआ करती थी
अब बेपरदा घर की इज़्ज़त हो रही देखो
जो पहचान घराने की हुआ करती थी।
जो होते थे ज़िंदगी के दारोमदार कभी
आज रिश्ते वो बाज़ारू हो चुके हैं
गुल्लकों में जमा होती थी जो बातें कभी
आज मोहल्लों में नीलाम हो रहीं हैं।
पौ फुटते जो हाथ कभी पैरों को छूते थे
आज गिरेबान पर डेरा डाल रहें हैं
बस एक डाँट से जो डर ज़ाया करते थे
आज वो अपनी आँखें दिखा रहें हैं।
विरासत
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