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मज़दूर


एक अनकही कथा

दुःखद व्यथा

विलीन शून्य में

किंचित नहीं संप्रभुता

मैं मज़दूर 

कार्यकुशलनिपुण

मानव अक्षुन। 


हो चाहे व्यग्र मेघ

या बरसे व्योम अभेध

मेरे संस्कार में

विराम कहीं नहीं

प्रतिक्षण जल रहा

जीवन यज्ञ कर रहा

आहुति दे श्वेद की

और तर्पण कर रहा 

नश्वर देह की। 


एक झोंपड़ी है

कुछ कच्ची सी

खेल खेलती अनोखे

जिसमें मेरी बच्ची है

और झेलती अनगिनत

संताप मेरी संगिनी

इनसे मेरी बस्ती है

और इनकी हंसी

अनवरत गूंजे जिसमें

हाँयही झोंपड़ी

रिश्तों से बनी पक्की है।


चलो मान लिया 

यह कथन तुम्हारा

निर्धनता से त्रस्त

जीवन हमारा

और है घिरे तम से

निर्बलनकारा

फिर भी क्यूँ

नहीं देख पा रहे

हमारे मन मंदिर को

और क्यूँ नहीं स्वीकृत करते

ईश्वर के दर्पण को

और क्यूँ नहीं स्वीकृत करते

समाज के इस 

अभिन्न अंग को।


एक चमक है नेत्रों में

एक स्वप्न

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