“क्या ठीक हूँ मैं?”
था बैठा तनहा
किसी एक सोच में
जाम का प्याला
हाथों में लिए
बेख़बर दुनिया से
क्यूँकि
दुनिया छोड़ रही थी
साथ मेरा
धीरे धीरे से
और तुम आज पूछ रहे मुझे
क्या ठीक हूँ मैं?
कुछ भी ठीक नहीं दिखता
अब दूर तलक़ तक मुझे
समझा जिन्हें अपना
गिद्ध बन
वही मांस मेरा नोच रहे
और लुत्फ़ उठा रहे
मेरी चीख़ पुकार का
मेरे दर्द का और
जिस्म से बहते मेरे खून का
उखाड़ फेंकनें को तैयार
उजाड़ बना देने को तैयार
मेरी दुनिया को
और बैठे मुस्कुरा रहे
मेरे हर एक अश्क़ पर
जैसे कुछ हुआ ही नहीं
और तुम आज पूछ रहे मुझे
क्या ठीक हूँ मैं?
था जिन पर यक़ीन मुझे
ख़ुद पर से भी ज़्यादा
आज वही देख रहे
शक़ की निगाहों से मुझे
उतार रहे सरे बाज़ार में
इज़्ज़त जो कभी थी मेरी
और नीलामी लगा रहे
मेरी ज़िंदगी की
ख़रीददार वही
जिसकी बोली थी सबसे कम
क्या इतनी सस्ती है
यह ज़िंदगानी मेरी
और तुम आज पूछ रहे मुझे
क्या ठीक हूँ मैं?
देखो अब तुम भी
तमाशा जो मेरा हो रहा
कैसे लड़ रहा अकेला
उन तूफ़ानी हवाओं से
जो दुश्मनों ने मेरे
छोड़ी मेरे अक़्स पर
और लड़