“अब और क्या लिखूँ?”
आज शाम को बैठा
किसी सोच में तनहा-अकेला,
तभी एक आवाज़ निकली,
कहीं दिल के कोने से,
आवाज़ दे बुला रही मुझे,
वही सोच जो मचल रही थी,
उकेर जाने को काग़ज़ पर,
उसी स्याही से,
जिसे बरसों से बिख़ेर रहा था,
उन्हें आकार दे,
साकार कर रहा था,
अपनी दिल की बातों को,
पन्नों पर लिख रहा था।
पन्ने जो अब पुराने हो गए,
युहीं बंद रहते हुए,
कुछ बदरंग हो गए थे,
कुछ थे चिपके एक दुजे से,
जैसे बरसों पुराने,
बिछड़े आशिक़ हो गए थे।
उन्ही कुछ पन्नों के बीच,
था छिपा किसी ज़माने का,
लाल सुर्ख़ एक प्रेम संगीत,
जो याद दिला रहा था,
मेरा गुज़रा वक़्त,
जो कभी किसी और का,
वक़्त हुआ करता था।
अब भी कुछ ख़ाली से थे,
पन्ने इंतेज़ार में,
कि कभी तो उन पर कुछ लिखूँगा,
अल्फ़ाज़ कुछ उनमें,
शामिल करूँगा,
और उनकी सादी ज़िंदगी पर,
स्याही से एहसास कुछ भरूँगा।
कलम! हाँ एक कलम ही तो है,
जिसने कभी साथ मेरा छोड़ा नहीं,
ख़ुशी हो या ग़म ज़िंदगी के,
अल्फ़ाज़ बयां करना छोड़ा नहीं,
मेरी रूह को ज़िंदा रखती,
मेरे धुंधले से उस अक़्स को,
काग़ज़ पर पूरा वो करती,
और दिखा जाती दुनिया को,
बड़ी साफ़गोई से,
वही चेहरा मेरे एहसासों का,
जिन्हें रखा था छिपा सबसे,
एक बड़े ज़माने से,
जिन्हें बांध रखा था ज़ंजीरों से,
अंधेरी एक काल कोठरी में,
जिसकी चाभी को