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लोकतंत्र बस चीख़ रहा है
और पतन अब दीख रहा है
सत्ता लोलुपता है व्यापित
राजनीति केवल है शापित
जनता केवल लूटी जाती
बात पड़े पर कूटी जाती
जनता की आवाज़ नहीं है
कोई नया आगाज़ नहीं है
चौथा खंभा चाटुकार है
बढ़ गया देखो अनाचार है
अधिकारों की बाते खोईं
बिना बात के आँखें रोईं
कृषकों की बस दशा वही है
रूप बदलकर दशा वही है
भाई-भाई लड़ बैठे हैं
इक-दूजे पे चढ़ बैठे हैं
हवा में घोला ज़हर किसी ने
ढाया सब पर क़हर किसी ने
शांति डरी-सहमी रहती है
कांति उड़ी-वहमी रहती है
सालों से जो रहता आया
गैर उन्हीं को फिर बतलाया
आपस में फिर फूट डालकर
दो हिस्सों में बंटवाया
शिक्षा की परिभाषा बदली
जन-जन की अभिलाषा बदली
नेता-चोर-उचक्के-सारे
मजलूमों को चुन-चुन मारें
गाँधी वाला देश नहीं हैं
बाबा-से परिवेश नहीं है
अटल इरादे माटी हो गए
झूठों की परिपाटी हो गए
नेता जी के सपने खोए
भगत-आज़ाद फूटकर रोए
नेहरू ने जो सपना बोया
लगता केवल खोया-खोया
राम-नाम से लूट मची है
अपनों में ही फूट मची है
रहमानों ने कसमें खाईं
बिना बात के रार बढ़ाई
दो हिस्सों में बँट गए सारे
कल तक थे जो भाई-भाई
राजनीति के चक्कर में आ
समता, एकता भी गँवाई
नेता अपनी रोटी सेंकें
गाँव गली और गलियारों में
उनको दिखता प्रेम है केवल
बंदूकों और तलवारों में
हमको आपस में लड़वाकर
खूब मलाई मिलकर खाते
इक थाली के चट्टे-बट्टे
कुछ सिंगल कुछ हट्टे-कट्टे
संसद एक अखाड़ा बनता
वाणी-शर बेशक फिर तनता
जनता को धीरे बहलाते
उनके नायक बन-बन जाते