रात शाम सी लगती है
सहन आम सी लगती है
मात भी नहीं खाती
ज़िंदगी तमाम सी लगती है
होकर रह जाता हु बेख़बर
रेत के टीलों से मिलकर
मिट्टी का मोहन हु
मिट्टी अजान सी लगती है
ग़ायब रहता
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रात शाम सी लगती है
सहन आम सी लगती है
मात भी नहीं खाती
ज़िंदगी तमाम सी लगती है
होकर रह जाता हु बेख़बर
रेत के टीलों से मिलकर
मिट्टी का मोहन हु
मिट्टी अजान सी लगती है
ग़ायब रहता