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काव्य - भगोड़ा मन
 कवि - जोत्सना जरी


 .
 वर्तमान शब्दों की भीड़ में
 भगोड़ा मन अकेला बैठता है
 चुपचाप किताब और तह के पन्नों में
 काल्पनिक प्लेरूम झूले
 किनारा धुल गया
 फिर भी भगोड़ा मन अकेला रहता है।

 .
 नींद नींद की सनकी ओस
 लिफाफे को कोहरे से भर देता है
 तलाश अभी खत्म नहीं हुई है
 आलसी दोपहर के पास
 उच्च-निम्न अलपथ के पार
 भगोड़ा दिमाग लिखता है
 कुछ भावनाएँ।

 .
 गुलाबी सर्दियों की धूप में
 सपने जागते हैं
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