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अब तो हवेलियों के भी आसार मिट गए

आ कर हमारे शहर की ज़ुल्मत मिटाए कौन

हर घर में इक उमीद का दीपक जलाए कौन


चारा गरों ने हाथ में तिरयाक ले लिया

मरहम हमारे ज़ख़्मों पे आ कर लगाए कौन


मैकश यही तो सोच के ज़हराब पी गए

साक़ी सुबू के जाम के नख़रे उठाए कौन


भँवरे तो बरहमी के सबब उड़ गए तमाम

कलियों को आशिक़ी के तराने सुनाए कौन


Tag: shayari और1 अन्य
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