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पुस्तक समीक्षा - समाज के पैर


पुस्तक - समाज के पैर

लेखक - डॉ हिमांशु शर्मा

प्रकाशक - एक्सप्रेस पब्लिशिंग ( नोशन प्रेस )

ISBN - 978-1-63633-200-0

समीक्षक - अनुराग अंकुर


समाज जिस की अनेकों अनेक व्याख्याएं दी जाती हैं, वह उन व्याख्याओं पर कितना खरा उतरता है इसका व्यंग्यात्मक - समीक्षात्मक दृष्टिकोण डॉ शर्मा

अपनी पुस्तक 'समाज के पैर' से रेखांकित करते हैं।

वह लिखते हैं "समाज विसंगतियों का मारा है इन विसंगतियों का यथा समय इलाज ना हो पाने के कारण यह खुद को दिव्यांग समझ बैठा है , तथा यह दिव्यांगता भी शारीरिक नहीं अपितु मानसिक है।"

पहली कहानी "मूर्खता के मायने" में ही व कुरीतियों तथा धार्मिक अंधविश्वासों पर चोट करते हुए चुटिले अंदाज में लिखते हैं - "बेवकूफी की परिभाषा क्या है ऐसी अवांछित हरकत या बात जिसका कोई महत्व नहीं हो।"

कहानी "समाज के पैर" जो कि इस किताब का शीर्षक भी है में वर्ण वेद पर तंज कसा जाता है, वही धर्म शीर्षक से चल रही कहानी में धर्मांधता का घोर विरोध प्रकट होता है।

पूरी शैली व्यंग्यात्मक है और सामाजिक उत्थान ही केंद्र बिंदु है। सहज और सरल भाषा का वैसा ही प्रयोग किया गया है जैसा किचन में प्रेशर कुकर का न जादा जटिल और ना ही झूलनदार। बस इतना कि जितना आप अपने मस्तिष्क में पचा सकें, वह भी बिना ऐसीलाक रूपी गूगल बाबा के।

पुस्तक अमेजन फ्लिपकार्ट नोशनप्रेस सहित राजमंगल पब्लिशर्स के आधिकारिक साइट पर भी उपलब्ध है।


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