
एक समय था जब सिनेमा सिर्फ़ एक माध्यम नहीं था, वह एक अनुभूति था। फिल्में परदे से निकलकर लोगों के ज़ेहन में उतर जाती थीं। किरदार हमारे जीवन का हिस्सा बन जाते थे, संवाद हमारे भीतर देर तक गूंजते रहते थे। लेकिन आज सिनेमा उसी समाज में घुट कर मर गया, जहां उसके दर्शक सबसे ज़्यादा मोबाइल डेटा खर्च करते हैं।
सिनेमा कभी आम आदमी का सबसे सस्ता और सुलभ मनोरंजन हुआ करता था। सिंगल स्क्रीन थिएटरों में रिक्शा चालक, ऑटो ड्राइवर, मजदूर वर्ग और छोटे कस्बों के लोग भी सिनेमा का आनंद उठा पाते थे। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में बड़े मल्टीप्लेक्स कल्चर ने सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों को लगभग खत्म कर दिया है। मल्टीप्लेक्स में टिकट की कीमत, फूड कोर्ट के दाम और पार्किंग चार्ज इतने अधिक हैं कि एक आम व्यक्ति का वहां जाना लग्जरी बन चुका है।
छोटे शहरों, ब्लॉक लेवल और गांवों के आसपास के सिनेमा हॉल अब या तो बंद हो चुके हैं या किसी और व्यावसायिक इस्तेमाल में आ गए हैं। वहीं दूसरी ओर, ओटीटी प्लेटफॉर्म्स जिन्हें विकल्प के रूप में देखा जा रहा था, उनकी सब्सक्रिप्शन फीस इतनी अधिक है कि मजदूर या निम्न-मध्यम वर्ग के लोग उन्हें भी नियमित रूप से नहीं देख सकते।
आज की स्थिति यह है कि गरीब सिनेमा प्रेमी के लिए न तो सिनेमाघर बचे हैं और न ही सस्ते डिजिटल विकल्प। कला और मनोरंजन की यह दूरी समाज में एक नए तरह की सांस्कृतिक असमानता को जन्म दे रही है।
सिनेमा मरा नहीं है, उसे मारा गया है। और उसकी हत्या में हम सब शामिल रहे। किसी ने उसे कॉरपोरेट मीटिंग की पिच बना दिया, किसी ने इंस्टाग्राम की रील, किसी ने प्रायोजित समीक्षा, और किसी ने महज़ “Weekend Plan”।
इस हत्या की शुरुआत तब हुई, जब कैमरे की आंख को Excel शीट में बदल दिया गया। जब कहानी से पहले स्टार तय होने लगे, और अभिनय से पहले बॉडी फैट रेशियो की चर्चा होने लगी।
प्रोडक्शन हाउस अब स्क्रिप्ट नहीं पढ़ते, वे डेटा एनालिस्ट से पूछते हैं कि किस अभिनेता की इंगेजमेंट कितनी है। कहानियाँ अब ‘कॉन्सेप्ट’ हैं, और अभिनेता अब ‘कॉन्टेंट पीस’।
OTT के आगमन के साथ उम्मीद जगी थी कि अब कहानी को आज़ादी मिलेगी। लेकिन अब वही प्लेटफॉर्म्स डिक्टेशन देते हैं, “दूसरे एपिसोड तक सेक्स सीन आ जाना चाहिए, वरना स्क्रॉल कर देंगे।” फिल्में अब दृश्य नहीं रचतीं, ट्रेंड पकड़ने की जद्दोजहद में लगी रहती हैं। कहानी की गहराई अब Watch Time के ग्राफ में सिमट गई है।
सेंसरशिप के बारे में तो मत पूछिए, ऐसा दबाव है कि सैकड़ों फिल्में पड़ी ही होगी।
सोचिए, अब केवल एल्गोरिद्म नहीं, सरकारें भी तय कर रही