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‘‘अत्र कुशलं तत्रास्तु’’ - अतुल कनक

‘अत्र कुशलं तत्रास्तुू।’ नई पीढ़ी को इस वाक्यांश से कुछ याद आए या नहीं आए लेकिन जिन लोगों का जन्म सत्तर के दशक में या उसके पहले हुआ है, उनके लिये संस्कृत का यह छोटा सा वाक्यांश अनगिनत यादों के झरोखे खोल देता है। अत्र कुशलं तत्रास्तु का शाब्दिक अर्थ है कि यहाँ सर्वकुशल है और वहाँ भी ऐसा ही हो। अस्सी के दशक के अंत तक लोग जब पत्रों के माध्यम से परस्पर संवाद करते थे, तब बहुधा चिट्ठियों की शुरूआत या तों इस वाक्याश के साथ होती थी या फिर ‘यहाँ पर सब कुशल है। उम्मीद है वहाँ भी सब कुशलपूर्वक होंगे। आगे हाल यह है कि....’’ जैसे वाक्यों से होती थी।

प्रायः घर के हर सदस्य के हाथ में पहुँच गये मोबाइल फोन और त्वरित संवाद के अन्य माध्यमों ने लोगों से इंतज़ार का वह मीठा सुख छीन लिया है जो चिट्ठी के माध्यम से किसी प्रियजन की कुशलक्षेम प्राप्त करने में मिलता था।

यह वह दौर था,जब टेलीफोन आभिजात्य होने की निशानी समझा जाता था। टेलीफोन का एक कनेक्शन पाने के लिये लंबा इंतज़ार करना पड़ता था और वीआईपी कोटे की वरीयता पाने के लिये लोग अपने अपने तरीके के जुगाड़ भी किया करते थे। अस्सी के दशक के मध्य तक तो टेलीफोन घर पर लग जाने के बावजूद किसी अन्य शहर में रहने वाले रिश्तेदारों से बात करना बहुत आसान नहीं हुआ करता था। लोगों को ट््रंककॉल बुक करवाकर अपनी लाइन मिल जाने की प्रतीक्षा करनी होती थी और बातचीत के तीन मिनिट बीत जाने के बाद ऑपरेटर बात काटकर पूछ लिया करता था कि आप अपनी बात जारी रखना चाहते हैं या नहीं। उन दिनों टेलीफोन एक्सचेंज के ऑपरेटर द्वारा ट््रंककॉल पर की जाने वाली वार्ताओं को सुनने के संबंध में भी अनेक रोचक किस्से पुराने लोग सुनाते हैं। जब देश में एसटीडी सेवाऐं शुरू हुईं तो जगह जगह पीसीओ खुल गये। बहुूत से लोगों को रोजगार मिला। चूँकि रात को सात बजे बाद बात करने पर कॉलरेट कम हो जाया करती थी, तो सात बजे बाद लोगों को एसटीडी पीसीओ बूथ के बाहर लाइन में अपनी बारी की प्रतीक्षा करते देखा जा सकता था। इस दौर में जिन लोगों के यहाँ टेलीफोन नहीं हुआ करते थे, वो अक्सर पी.पी. नंबर का इस्तेमाल किया करते थे। पी.पी. नंबर का अर्थ कुछ लोग ‘पड़ौसी का फोन’ बताया करते थे।

ल्ेकिन फिलहाल बात चिट्ठियों की। निश्चित रूप से चिट्ठियों की शुरूआत अपने प्रियजन तक संदेश पहुँचाने की आवश्यकता और आकांक्षा के कारण ही हुई होगी। प्राचीनकाल में चिट्ठियाँ भेजना सहज नहीं था। राज्य के घुड़सवार आवश्यक पत्रों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाया करते थे। कुछ व्यापारिक संगठन भी सशुल्क ऐसी सेवाऐं देते थे। गुप्तचरों औरडाकुओं द्वारा पत्रवाहकों को रोककर मार दिया जाना आम बात हुआ करती थी। लोगों ने कबूतरों का भी इस्तेमाल पत्रवाहक के तौर पर किया। कालीदास के मेघदूत में मेघ नायक का संदेशा लेकर दिगंत तक यात्रा करता है।

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