एक भाषा की विकास यात्रा  - अतुल कनक's image
474K

एक भाषा की विकास यात्रा - अतुल कनक

[फीचर/ राजस्थानी] राजस्थानी हिन्दी की बोली है या भाषा, इस बात पर चर्चा करने से भी पहले यह आवश्यक प्रतीत होता है कि क्या राजस्थानी को एक स्वतंत्र भाषा के रूप में संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान दिया जाना राष्ट््रहित के संदर्भ में किसी भी तरह से ‘खतरनाक’ होगा- जैसा कि लगातार दुष्प्रचार किया जा रहा है।

बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से राजस्थानी भारत की छह प्रमुख भाषाओं में एक है और क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थानी भाषा का प्रसार क्षेत्र हिन्दी भाषा के बाद देश में सबसे बड़ा माना जाता है। अक्सर राजस्थानी भाषा की मान्यता का सवाल उठता है तो राजस्थानी की बोलियों में परिवेशगत भिन्नता को मुद्दा बनाकर राजस्थानी की एकरूपता का सवाल खड़ा कर दिया जाता है। यह सवाल खड़ा करने वाले इस तथ्य को भी बिसरा देते हैं कि संपन्न बोलियाँ किसी भी भाषा की दुर्बलता नहीं, अपितु उसकी ताकत हुआ करती हैं। राजस्थानी में एक कहावत है- ‘‘बारह कोसाँ बोली पलटै, बनफल पलटै पाकाँ/ बरस छत्तीसा जोबन पलटै/ लखन न पलटै लाखाँ।’’ (बारह कोस पर बोली बदल जाती है, जंगल में लगा फल पकने पर बदल जाता है, छत्तीस वर्ष की वय में व्यक्ति का यौवन पलट जाता है अर्थात् बदलने लगता है लेकिन किसी व्यक्ति का जो स्वभाव एक बार पढ़ गया हो, वह लाख कोशिशों के बावजूद परिवर्तित नहीं होता।) स्पष्ट है कि भौगोालिक दृष्टि से दूरियाँ बढ़ते ही व्यक्तियों के उच्चारण में विविध कारणों से परिवर्तित होता है और यह परिवर्तन ही बोलियों की व्युत्पत्ति के मूल में होता है। राजस्थान, जो क्षेत्रफल की दृष्टि से अब भारत का सबसे बडा प्रदेश भी है, यदि विविध बोलियों से समृद्ध है तो यह अस्वाभाविक नहीं है। क्या पंजाब में रहने वाले हिंदी भाषी और बिहार में रहने वाले हिंदी भाषी उसी तरह का उच्चारण करते हैं जैसा राजस्थान या उत्तरप्रदेश के निवासी करते हैं? दुनिया में संस्कृत के अलावा शायद ही ऐसी कोई भाषा हो, जिसके विविध रूप प्रचलन में नहीं हो। जिस अंग्रेजी की बात लखन शर्मा ने अपने लेख में कही है, उस अंग्रेजी के भी कई रूप दुनिया में प्रचलित हैं। अमेरिकी अंग्रेजी और ब्रिटिश अंग्रेजी की तो ‘स्पेलिंग’ तक कई जगहों पर अलग अलग है। ऐसे में वो किस अंग्रेजी से खतरे की बात कर रहे हैं?

कुछ लोगों को एक और भ्रम है। उनका कहना है कि आजादी के पहले राजस्थान नाम की कोई भौगोलिक इकाई ही नहीं थी तो फिर राजस्थानी नाम की भाषा का अस्तित्व कहाँ से आ गया? देश के एक प्रतिष्ठित चैनल से जुड़े एक जिम्मेदार अधिकारी ने पिछले दिनों मुझसे व्हाॅट्जअॅप पर यह सवाल किया। यह भ्रम है कि किसी भूभाग के संदर्भ में राजस्थान शब्द का प्रयोग आजादी के बाद ही सबसे पहली बार हुआ। विद्वानों के अनुसार राजस्थान शब्द का प्रयोग विक्रम की छठी शताब्दी में चित्तौड़ के एक शिलालेख में सबसे पहले हुआ। फिर सन्् 532 के मंदसौर (मध्यप्रदेश) के एक शिलालेख में और सन् 625 के सिरोही जिले के बसंतगढ़ के एक शिलालेख में भी ‘राजस्थानियां’ शब्द मिलता है। भाषा विज्ञानियों का मानना है कि वहाँ ‘राजस्थानियां’ शब्द का प्रयोग ‘प्रांतपाल’ या ‘विदेश सचिव’ के लिये हुआ। मुहणौत नैणसी, वीरभाण, बांकीदास और सूर्यमल्ल मिश्रण ने भूभाग या राजधानी के तौर पर ‘राजथांन’ या ‘राजस्थान’ शब्द का प्रयोग किया। एक प्रदेश के तौर पर वर्तमान राजस्थान के लिये राजस्थान शब्द का प्रयोग सबसे पहले ब्रिटिश इतिहासकार कर्नल जेम्स टाॅड ने किया। जेम्स टाॅड ने उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक में राजस्थान का व्यापक भ्रमण किया और ‘एनाॅल्स एण्ड एंटीक्विटीज आॅफ राजस्थान’ नामक पुस्तक लिखी। इसी भ्रमण के दौरान टाॅड ने राजपूताने में ब्रिटिश साम्राज्य के साथ पहली संधि की भूमिका भी तत्कालीन कोटा राज्य के प्रधानमंत्री झाला जालिमसिंह के साथ मिलकर रची थी। उबेदुल्लाह फरैती (सन् 1889), रामनाथ रतनू (सन् 1892) और रामनारायण दुग्गड़ ( सन् 1913) ने भी बाद में अपनी अपनी पुस्तकों के शीर्षक में एक भौगोलिक इकाई के तौर पर राजस्थान शब्द का प्रयोग किया।

लेकिन यह बात सबसे पहले जार्ज ग्रियर्सन ने कही कि इस प्रदेश के निवासियों की भाषा राजस्थानी है। जार्ज ग्रियर्सन ने यह बात अपनी पुस्तक ‘लिंग्विस्टिक सर्वे आॅफ राजस्थान’ में लिखी, जो 1907-08 में छपी। 191 ई. से 1916 ई. के मध्य इतालवी विद्ान एल.पी.तैस्सीतौरी ने ‘इंडियन ऐंटीक्विटी’ नामक एक पत्रिका में भारतीय भाषाओं पर लगातार लिखे। तैस्सीतोरी के ये लेख विशद् भाषाई सर्वेक्षण पर आधारित थे और तैस्सीतोरी ने भी राजस्थानी भाषा को एक स्वतंत्र भाषा का दर्जा दिया। बाद में डाॅ. सुनीतिकुमार चाटुज्र्या, मोतीलाल मेनारिया, प्रो. नरोत्तमदास, डाॅ. सरनामसिंह अरूण, हीरा लाल माहेश्वरी, सीताराम लालस, जगदीश प्रसाद श्रीवास्तवए डाॅ. देवकोठारी सहित कितने ही भाषाविदों ने राजस्थानी को एक स्वतंत्र भाषा के तौर पर स्वीकार किया। पं. मदनमोहन मालवीय ने जब राजस्थानी भाषा के गुणों के बारे में जाना था तो कहा था कि इस भाषा को युवाओं को अवश्य पढ़ाया जाना चाहिये। उन्होंने कहा था -‘‘ राजस्थानी वीरों की भाषा है, राजस्थानी का साहित्य वीर साहित्य है। संसार के साहित्य में उसका निराला स्थान है। वर्तमान काल में भारतीय नवयुवकों के लिये तो उसका अध्ययन अनिवार्य होना चाहिये।’’ रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी कहा था - ‘‘राजस्थान ने अपने रक्त से जो साहित्य निर्माण किया है, उसकी जोड़ का साहित्य और कहीं नहीं पाया जाता और इसका कारण है, राजस्थानी कवियों ने कठिन सत्य के बीच में रहकर युद्ध के नगाड़ों के मध्य कविताऐं बनाई थीं। प्रकृति का ताण्डव रूप उनके सामने था। आजकल क्या कोई केवल अपनी भावुकता के बल पर फिर उस काव्य का निर्माण कर सकता है? राजस्थानी भाषा के साहित्य में जो एक भाव है, जो एक उद्वेग है, वह केवल राजस्थान के लिए नहीं अपितु सारे भारतवर्ष के लिए गौरव की वस्तु है।’’

लेकिन जिस राजस्थानी के बारे में इतनी सारी बातें की जा रही हैं, उसके बारे में कुछ बुनियादी बातों का जानना भी आवश्यक है- क्योंकि कई बार जानकारी का अभाव (मैं इसे अज्ञान नहीं कह रहा हूँ) व्यक्तियों को प्रवाद या प्रमाद की ओर धकेल देता है। राजस्थानी भारोपीय परिवार की भाषा है। हाड़ौती, मारवाड़ी, ढूँढाड़ी, मेवाड़ी, मेवाती, शेखावाटी और वागड़ी इसकी प्रमुख बोलियाँ हैं और इन बोलियों की भी कई उपबोलियाँ हैं।कुछ विद्वान मेरवाड़ी और गौड़वाड़ी को भी राजस्थानी की पृथक मुख्य बोलियों में गिनते हैं। प्रसार की दृष्टि से राजस्थानी का प्रयोग आधुानिक पाकिस्तान के कुछ हिस्सों में और सीमावर्ती हरियाणा में भी पाया जाता है। पाकिस्तान के कुछ विद्यालयों में तो आज भी ‘राजस्थानी कायदो’ नाम से बाकायदा राजस्थानी व्याकरण पढ़ाया जाता है। राजस्थानी की व्युत्पत्ति प्राचीन अपभ्रंश से मानी गई है। राजस्थानी साहित्य अकादमी, बीकानेर के पूर्व अध्यक्ष डाॅ. देव कोठारी ने एक स्थान पर लिखा है - ‘‘भाषा विज्ञान की दृष्टि से राजस्थानी भाषा भारोपीय परिवार की भाषा है। इस राजस्थानी भाषा का मूल वैदिक संस्कृत और प्राकृत है। विद्वानों ने इस वैदिक संस्कृत और प्राकृत का विकास काल ई.पू. 2000 से 600 ई.पू. तक माना है। इसी वैदिक संस्कृत को छांदस भाषा भी कहा जाता है। यह छांदस भाषा साहित्यिक भाषा थी, लेकिन इसका लौकिक रूप प्राकृत के रूप में प्रतिष्ठित है।ई.पू. 600 के आसपास प्राकृत का यह लौकिक रूप जनभाषा बनकर विकसित होना लगा। महावीर अर गौतम बुद्ध ने इसी लौकिक प्राकृत को अपने उपदेशों का आधार बनाया। वैदिक या छांदस भाषा जब व्याकरण के नियमों से बँाधी गई तो यह वैदिक या छांदस संस्कृत के तौर पर पहचानी जाने लगी। व्याकरण के कठोर नियमों के कारण यह संस्कृत बोलचाल से दूर होती गई और किताबों की भाषा तक ही सीमित हो कर रह गई। इसके विपरीत लोकभाषा प्राकृत में व्याकरण की कठोरता नहीं थी, इस कारण यह लोकभाषा प्राकृत विकास की ओर बढ़ती गई। भाषा का यह सामान्य नियम है कि वह कठिनता से सरलता की ओर अग्रसर होती है। यह अग्रसर होना ही भाषा का विकास है।’’ (राजस्थानी पत्रिका जागती जोत के दिसंबर 2006 में प्रकाशित लेख के अंश का अनुवाद)

इसी लेख में कोठारी आगे लिखते हैं -‘‘ विकास की इस परंपरा में प्राकृत के भी कई स्थान-भेद हो गये ।इन स्थान भेदों में शौरसैनी प्राकृत भी एक थी। भरत मुनि (300 ईस्वी) ने अपने ‘नाट्यशास्त्रम्’ ग्रंथ के ‘सप्तदश’ अध्याय में जिन सात भाषाओं का उल्लेख किया है, उनमें शौरसैनी भाषा भी एक है। इस शौरसैनी प्राकृत से शौरसैनी अपभ्रंश का विकास हुआ। राजस्थानी और गुजराती की उत्पत्ति इस शौरसैनी अपभ्रंश से ही हुई।’’प्रारंभिक राजस्थानी का यह रूप जैन संत उ़द्योतन सूरि की रचना ‘कुवलयमाला’ में देखने को मिलता है। यह रचना सन् 778 के लगभग राजस्थान के जालौर में लिखी गई। कुवलयमाला में जिन 18 देशी भाषाओं का उल्लेख है, उनमें ‘मरू भाषा’ भी एक है। यह मरूभाषा ही आधुनिक राजस्थानी की अपभ्रंशकालीन पूर्वपीठिका मानी जाती है। सत्रहवी शताब्दी में एक अन्य जैन कवि कुशललाभ ने अपने ग्रंथ ‘पिंगल शिरोमणि’ में और मुगल शहंशाह अकबर के दरबार के इतिहासकार अबुल फजल ने ‘आईने अकबरी’ में इस क्षेत्र की भाषा के लिये मारवाड़ी शब्द का प्रयोग किया। दरअसल, मारवाड़ के प्रवासी व्यापारियों के देशभर में प्रभाव के कारण आज भी सामान्यतौर पर देश के दूसरे हिस्सों में राजस्थानियों के लिये ‘मारवाड़ी’ शब्द का एक सामान्य संज्ञा के तौर पर इस्तेमाल होता है और ठीक उसी तरह से राजस्थानी भाषा के लिये मारवाड़ी शब्द का प्रयोग किया जाता रहा। लेकिन इसका आशय यह नहीं है कि सिर्फ मारवाड़ी बोली ही राजस्थानी है। कुछ समय पहले राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता का विरोध करने वाले लोगों ने यह दुष्प्रचार भी किया कि राजस्थानी के नाम पर मारवाड़ी बोली को थोपने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन समकालीन राजस्थानी सृजन संसार की प्रवृत्तियों ने यह साबित कर दिया है कि यह मान्यता केवल दुराग्रह है।

कुवलयमाला में ‘अप्पा- तुप्पा’ नाम से जिस भाषा का नाम मिलता है 0188 अप्पा- तुप्पा भणि रे, अह पेच्छई मारू ए तत्तो) वक उस समय की आम भाषा है और ‘मरूभाषा’ के नाम से राजस्थानी का उल्लेख हुआ है। कतिपय विद्वानों ने इसी मरूभाषा को जूनी राजस्थानी अर्थात् पुरानी राजस्थानी भी कहा है। कुवलयमाला के बाद की चार- पाँच शताब्दियों के राजस्थानी साहित्य का विशद विश्लेषण अभी शेष है। उस दौरान राजस्थानी का फुटकर प्रयोग कई रचनाओं में मिलता है लेकिन सन् 1000 ईस्वी में मुनि रामसिंह द्वारा लिखे गये ग्रंथ ‘पाहुड़ दोहा’ में राजस्थानी का सबसे प्रारंभिक लिखित रूप मिलता है। सन् 1068 ई. में ब्रजसेन सूरि ने ‘भरतेश्वर बाहुबलि रास’ नामक ग्रंथ लिखा। इसे राजस्थानी भाषा का पहला संपूर्ण ग्रंथ होने का गौरव प्राप्त है। यह महत्वपूर्ण है कि राजस्थानी के प्रारंभिक दौर की सभी प्राप्त रचनाऐं पद्य रचनाऐं हैं।शायद इसलिये कि उनमें से अधिकांश की रचना जनसाधारण को नीति शिक्षा देने के लिये हुई और पद्य रचनाओं को श्रुतिपरंपरा से आगे बढ़ा पाना अपेक्षाकृत सरल होता है। 14वीं शताब्दी से राजस्थानी साहित्य गद्य और पद्य दोनों में मिलता है। यहाँ उल्लेखनीय है कि समकालीन भारतीय साहित्य में छपे अपने लेख में लखन शर्मा ने यह आरोप भी लगाया है कि उन भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किये जाने का प्रयास किया जा रहा है, जिन भाषाओं में अभी तक गद्य का विकास तक नहीं हुआ। वो शायद इस तथ्य से अनजान हैं कि हिन्दी में भले ही कहानी लेखन की परंपरा गुलैरी जी के लेखन से पल्लवित हुई हो लेकिन राजस्थानी में वात् साहित्य की परंपरा चार सौ से अधिक साल पुरानी है। यह वात् साहित्य किसी कथा को कहने की सबसे लोकप्रिय परंपराओं का पोषक भी है। वात के अलावा भी दवावैत, वचनिका, ख्यात् जैसी प्राचीन विधाऐं राजस्थानी में मौजूद हैं और अब तो गद्य की सभी विधाओं में राजस्थानी में लगातार लिखा जा रहा है। राजस्थानी भाषा का पहला आधुानिक उपन्यास ‘कनक सुंदर ’शिवचंद्र भरतिया ने 1903 में हैदराबाद में लिख दिया था। इस ग्रंथ की भाषा उन लोगों को भी एक संदेश देती है जो बोलीगत विभिन्नता के कारण राजस्थानी की एकरूपता का सवाल खड़ा करते हैं -‘‘ विद्या बिना आदमी -लं

Read More! Earn More! Learn More!