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मिट्टी का तन, मस्ती का मन, क्षण भर जीवन, मेरा परिचय

[World Environment Day]

प्रकृति की गोद में वो सुख है, जो हज़ारों की संपत्ति पाकर भी नहीं मिलता। इसके सानिध्य में रहकर मनुष्य जीने की प्रेरणा पाता है। प्रकृति की हरियाली में सुख और शांति है। आधुनिकता में सुविधाएँ है परन्तु सुविधाएँ जीने के लिए काफी हो यह भी संभव नहीं है। एक समय था जब चारों ओर आधुनिकता के लिए लोग मारे-मारे फिरते थे। आज एक समय है, जब मनुष्य प्रकृति की ओर मुड़ रहा है। आधुनिकता मे आकर्षण है परन्तु उस आकर्षण का प्रभाव लंबा नहीं होता है। जब इस आकर्षण का मोहपाश खुलता है, तो मनुष्य हैरान रहा जाता है। प्रकृति का प्रभाव सरल, शांत सुखकारी है, यहां शीतलता भी है, चंचलता भी है, विरल शांति भी है, मन को प्रसन्न करने वाले दृश्य भी हैं। अतः हे मनुष्य तुम इसकी ओर बढ़ो और अपने जीवन को सुख से भर लो।

आइये जानते हैं, हमारे पूर्वज कवियों ने अपनी कविताओं के माध्यम से प्रकृति का व्याख्यान कैसे किया है:

[झर पड़ता जीवन डाली से - सुमित्रानंदन पंत]

झर पड़ता जीवन-डाली से

मैं पतझड़ का-सा जीर्ण-पात!--

केवल, केवल जग-कानन में

लाने फिर से मधु का प्रभात!

मधु का प्रभात!--लद लद जातीं

वैभव से जग की डाल-डाल,

कलि-कलि किसलय में जल उठती

सुन्दरता की स्वर्णीय-ज्वाल!

नव मधु-प्रभात!--गूँजते मधुर

उर-उर में नव आशाभिलास,

सुख-सौरभ, जीवन-कलरव से

भर जाता सूना महाकाश!

आः मधु-प्रभात!--जग के तम में

भरती चेतना अमर प्रकाश,

मुरझाए मानस-मुकुलों में

पाती नव मानवता विकास!

मधु-प्रात! मुक्त नभ में सस्मित

नाचती धरित्री मुक्त-पाश!

रवि-शशि केवल साक्षी होते

अविराम प्रेम करता प्रकाश!

मैं झरता जीवन डाली से

साह्लाद, शिशिर का शीर्ण पात!

फिर से जगती के कानन में

आ जाता नवमधु का प्रभात!


[कहाँ गया वह श्यामल बादल! - महादेवी वर्मा]

कहाँ गया वह श्यामल बादल।


जनक मिला था जिसको सागर,

सुधा सुधाकर मिले सहोदर,

चढा सोम के उच्चशिखर तक

वात सङ्ग चञ्चल। !

कहाँ गया वह श्यामल बादल।


इन्द्रधनुष परिधान श्याम तन,

किरणों के पहने आभूषण,

पलकों में अगणित सपने ले

विद्युत् के झलमल।

कहाँ गया वह श्यामल बादल।


तृषित धरा ने इसे पुकारा,

विकल दृष्ठि से इसे निहारा,

उतर पडा वह भू पर लेकर

उर में करुणा नयनों में जल।

कहाँ गया वह श्यामल बादल


[बैठ जाता हूँ मिट्टी पे अक्सर - हरिवंश राय बच्चन ]

बैठ जाता हूँ मिट्टी पे अक्सर

क्योंकि मुझे अपनी औकात अच्छी लगती है ।


मैंने समंदर से सीखा है जीने का सलीक़ा,

चुपचाप से बहना और अपनी मौज में रहना ।


ऐसा नहीं है कि मुझमें कोई ऐब नहीं है

पर सच कहता हूँ मुझमें कोई फरेब नहीं है ।


जल जाते हैं मेरे अंदाज़ से मेरे दुश्मन क्योंकि

एक मुद्दत से मैंने न मोहब्बत बदली और न दोस्त बदले ।


एक घड़ी ख़रीदकर हाथ में क्या बाँध ली,

वक़्त पीछे ही पड़ गया मेरे ।


सोचा था घर बना कर बैठूँगा सुकून से;

पर घर की ज़रूरतों ने मुसाफ़िर बना डाला ।


सुकून की बात मत कर ऐ ग़ालिब,

बचपन वाला ‘इतवार’ अब नहीं आता ।


शौक तो माँ-बाप के पैसों से पूरे होते हैं,

अपने पैसों से तो बस ज़रूरतें ही पूरी हो पाती हैं ।


जीवन की भाग-दौड़ में क्यूँ वक़्त के साथ रंगत खो जाती है ?

हँसती-खेलती ज़िन्दगी भी आम हो जाती है ।


एक सबेरा था जब हँस कर उठते थे हम,

और आज कई बार बिना मुस्कुराये ही शाम हो जाती है ।


कितने दूर निकल गए, रिश्तों को निभाते-निभाते;

खुद को खो दिया हमने, अपनों को पाते-पाते ।


लोग कहते है हम मुस्कुराते बहुत हैं

और हम थक गए दर्द छुपाते-छुपाते ।


खुश हूँ और सबको खुश रखता हूँ,

लापरवाह हूँ फिर भी सबकी परवाह करता हूँ ।


मालूम है कोई मोल नहीं मेरा, फिर भी,

कुछ अनमोल लोगों से रिश्ता रखता हूँ ।


[छिप छिप अश्रु बहाने वालों - गोपालदास “नीरज”]

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों

कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है।


सपना क्या है, नयन सेज पर

सोया हुआ आँख का पानी

और टूटना है उसका ज्यों

जागे कच्ची नींद जवानी

गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों

कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है।


माला बिखर गयी तो क्या है

खुद ही हल हो गयी समस्या

आँसू गर नीलाम हुए तो

समझो पूरी हुई तपस्या

रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों

कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है।


खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर

केवल जिल्द बदलती पोथी

जैसे रात उतार चांदनी

पहने सुबह धूप की धोती

वस्त्र बदलकर आने वालों! चाल बदलकर जाने वालों!

चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।


लाखों बार गगरियाँ फूटीं,

शिकन न आई पनघट पर,

लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,

चहल-पहल वो ही है तट पर,

तम की उमर बढ़ाने वालों! लौ की आयु घटाने वालों!

लाख करे पतझर कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है।


लूट लिया माली ने उपवन,

लुटी न लेकिन गन्ध फूल की,

तूफानों तक ने छेड़ा पर,

खिड़की बन्द न हुई धूल की,

नफरत गले लगाने वालों! सब पर धूल उड़ाने वालों!

कुछ मुखड़ों की नाराज़ी से दर्पन नहीं मरा करता है!


[मनुष्यता- मैथिलीशरण गुप्त]

विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸

मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।

हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸

नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।

यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।


उसी उदार की कथा सरस्वती बखानवी¸

उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।

उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;

तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।

अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।।


सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;

वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।

विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸

विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?

अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸

वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।


अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸

समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।

परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸

अभी अमर्त्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।

रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।


"मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है¸

पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।

फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸

परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।

अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।


चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸

विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।

घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸

अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।

तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।


रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में

सन्त जन आपको करो न गर्व चित्त में

अन्त को हैं यहाँ त्रिलोकनाथ साथ में

दयालु दीन बन्धु के बडे विशाल हाथ हैं

अतीव भाग्यहीन हैं अंधेर भाव जो भरे

वही मनुष्य

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