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सभी से इन दिनों रूठा हुआ सा लगता हूँ — बशीर बद्र

लम्बा-पतला नौजवान, शरीर पर फबती हुई उत्तर पुलिस की वर्दी, नाम सैयद मोहम्मद बशीर; इस विवरण के बाद आपके ज़ेहन में कैसी तस्वीर उभरती है? क्या ये तस्वीर किसी शायर की हो सकती है? और वो भी मुहब्बत के शायर की? जी हाँ, यहाँ हम बात कर रहे हैं नई ग़ज़ल में मुहब्बत के सबसे बड़े शायर जनाब बशीर बद्र साहब की। शायद बशीर साहब ने अपने लिए ही लिखा हो:


मैं कागज़ की तक़दीर पहचानता हूँ

सिपाही को आता है तलवार पढ़ना


15 फ़रवरी 1869 को ग़ज़ल की दुनिया के बेताज बादशाह मिर्ज़ा ग़ालिब का इंतकाल हो गया और 15 फ़रवरी को ही 1935 में एक बहुत बड़े शायर का जन्म हुआ जिनका नाम है बशीर बद्र। बशीर साहब का जन्म कानपुर में हुआ। इनके वालिद पुलिस महकमें में लेखाकार थे। बशीर साहब ने अपनी प्राइमरी की पढ़ाई कानपुर से की और हाई स्कूल इटावा से किया। कहते हैं होनहार बिरवान के होत चिकने पात, लगभग दस बरस की उम्र में बशीर बद्र ने अपना पहला शेर कहा, जो यूँ था : — -


तेरे इश्क़ में मैं मरा जा रहा हूँ

हवा चल रही है उड़ा जा रहा हूँ


और फिर मुहब्बत की ये हवा ऐसी चली कि बशीर साहब मुहब्बत की नुमाइंदगी करने वाले शायर बन कर उभरे। परिवार में सिर्फ बशीर साहब के वालिद ही कमाने वाले थे, उनकी अस्वस्थता की वजह से बशीर साहब ने अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ दी और उतर प्रदेश पुलिस में नौकरी करने लगे। कई साल नौकरी करने के बाद बशीर बद्र ने उर्दू में एम्.ए अलीगढ यूनिवर्सिटी से गोल्ड मेडल के साथ किया और “आज़ादी के बाद उर्दू ग़ज़ल” विषय पर पी.एच .डी भी उन्होंने अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से की।

बहुत कम ऐसे लोग मिलेंगे जिन्होंने अपनी लिखी हुई रचना, अपने ही पाठ्यक्रम में पढ़ी हो। बशीर बद्र अपने आप में एक मिसाल हैं, जिन्होंने अपने कोर्स में अपनी लिखी हुई किताब पढ़ी भी और फिर बाद में प्रोफेसर के तौर पर बच्चों को पढ़ाया भी। बशीर बद्र 17 वर्षों तक मेरठ कॉलेज मेरठ में प्राध्यापक और हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट रहे।

बशीर बद्र की शायरी की सबसे बड़ी खासियत है उसका आवाम की भाषा में होना। शायद ही बशीर साहब की कोई ग़ज़ल मिले, जिसे बिना शब्दकोष देखे समझने में मुश्किल हो। इस सवाल पर कि आप का क़लाम बाकी सुख़नवरों से इतना मुख्तलिफ़ क्यूँ है और इतना मक़बूल कैसे हो जाता है, तो उन्होंने कहा कि मैंने भी शुरूआती दौर में फ़ारसी /अरबी के कठिन लफ़्ज़ों का इस्तेमाल कर शाइरी की जो किताबों में तो ज़िन्दा रही पर लोगों के ज़हनों में घर न कर सकी। बशीर साहब का ही शेर है:


हज़ारों शे’र मेरे सो गये काग़ज़ की क़ब्रों में

अजब माँ हूँ कोई बच्चा मेरा ज़िन्दा नहीं रहता


बशीर साहब ने खुद कहा कि मीर , ग़ालिब , कबीर , अमीर खुसरो ,जिगर इन सब के वो शे’र कामयाब हुए जो आम बोलचाल की ज़ुबान में थे, सो मैंने भी आम आदमी की ज़ुबान में कहना शुरू कर दिया बस इसी चालाकी से आज मेरा क़लाम आपके ज़ेहन में ज़िन्दा है। ग़ज़ल न तो उर्दू, न फ़ारसी, न अरबी और न हिन्दी की बपौती है। ग़ज़ल तो उस ज़ुबान को अपने अन्दर समो लेती है जिसे भीख मांगने वाला भी समझे और भीख देने वाला भी। शाइरी वही ज़िन्दा रहती है जो आम इन्सान के दिल तक पहुंचे और उसे शे’र समझने के लिए लुगत (शब्द -कोश) न देखना पड़े।


आज के दौर में मीर और ग़ालिब के बाद जिन शायरों के शेर सबसे ज्यादा पढ़े और कहे जाते हैं उनमें फ़िराक, फैज़, फ़रा

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