
दोहा – 01
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।
अर्थ: रहीमदास जी कहते हैं कि जो अच्छे स्वभाव के मनुष्य होते हैं, उनको बुरी संगति भी नहीं बिगाड़ पाती। जिस प्रकार ज़हरीले सांप सुगंधित चन्दन के वृक्ष से लिपटे रहने पर भी उस पर कोई जहरीला प्रभाव नहीं डाल पाते।
दोहा – 02
वृक्ष कबहूँ नहीं फल भखैं, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर।।
अर्थ: वृक्ष कभी अपने फल नहीं खाते, नदी कभी अपने लिए जल संचित नहीं करती, उसी प्रकार सज्जन पुरुष परोपकार के लिए देह धारण करते हैं।
दोहा – 03
रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार।
रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ता हार।।
अर्थ: रहीमदास जी कहते हैं कि यदि आपका प्रिय सौ बार भी रूठे, तो भी रूठे हुए प्रिय को मनाना चाहिए। क्योंकि यदि मोतियों की माला टूट जाए तो उन मोतियों को बार बार धागे में पिरो लेना चाहिए। क्योकि मोतियों की माला हमेशा सभी के मन को भाती है।
दोहा – 04
खीरा सिर ते काटि के, मलियत लौंन लगाय।
रहिमन करुए मुखन को, चाहिए यही सजाय।।
अर्थ: खीरे का कड़ुवापन को दूर करने के लिए उसके ऊपरी सिरे को काटने के बाद नमक लगा कर घिसा जाता है। रहीम दास जी कहते हैं कि कड़ुवे मुंह वाले के लिए – कटु वचन बोलने वाले के लिए यही सजा उपयुक्त है।दोहा – 05
दोनों रहिमन एक से, जों लों बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक पिक, रितु बसंत के माहिं।।
अर्थ: कौआ और कोयल रंग में एक जैसा होता हैं। जब तक ये बोलते नहीं तब तक इनकी पहचान नहीं हो सकती। लेकिन जब वसंत ऋतु आती है, तो कोयल की मधुर आवाज़ से दोनों का अंतर स्पष्ट हो जाता है।
दोहा – 06
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय।
टूटे पे फिर ना जुरे, जुरे गाँठ परी जाय।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि प्रेम का रिश्ता नाज़ुक होता है, इसे झटका देकर तोड़ना उचित नहीं होता। यदि प्रेम का धागा एक बार टूट जाय तो फिर इसे मिलाना कठिन होता है और यदि यह मिल भी जाए तो टूटे हुए धागों के बीच में गाँठ पड़ जाती है।
दोहा – 07
वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।
बांटन वारे को लगे, ज्यों मेंहदी को रंग।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते है कि धन्य है वे लोग ,जिनका जीवन सदा परोपकार के लिए बीतता है, जिस प्रकार मेंहदी बांटने वाले के अंग पर भी मेंहदी का रंग लग जाता है, उसी प्रकार परोपकारी का शरीर भी सुशोभित रहता है।
दोहा – 08
रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते है कि जब ख़राब समय चल रहा हो तो मौन रहना ही उचित है। क्योंकि जब अच्छा समय आता हैं, तब काम बनते देर नहीं लगतीं। अतः हमेशा सही समय का इंतजार करना चाहिए।
दोहा – 09
निज कर क्रिया रहीम कहि सीधी भावी के हाथ।
पांसे अपने हाथ में दांव न अपने हाथ।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि अपने हाथ में तो केवल कर्म करना ही होता है। सिद्धि तो भाग्य से ही मिलती है। जैसे चौपड़ खेलते समय पांसे तो अपने हाथ में रहते हैं पर दांव में क्या आएगा, यह अपने हाथ में नहीं होता।
दोहा – 10
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥
अर्थ: जिस प्रकार पेड़ अपने फल को कभी नहीं खाते हैं, तालाब अपने अन्दर जमा किये हुए पानी को कभी नहीं पीता। उसी प्रकार सज्जन व्यक्ति भी अपना इकट्ठा किये हुए धन से दूसरों का ही भला करते हैं।दोहा – 11
रहिमन मनहि लगाईं कै, देख लेहूँ किन कोय।
नर को बस करिबो कहा, नारायण बस होय।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि यदि आप अपने मन को एकाग्रचित होकर काम करोगे, तो आपको सफलता अवश्य मिलेगी। उसी प्रकार अगर मनुष्य मन से ईश्वर को चाहे तो वह ईश्वर को भी अपने वश में कर सकता है।
दोहा – 12
रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जान परत सब कोय।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि यदि विपत्ति कुछ समय के लिए हो तो वह भी ठीक ही है, क्योंकि विपत्ति के समय में ही सबके विषय में जाना जा सकता है कि संसार में कौन हमारा हितैषी है और कौन नहीं है।
दोहा – 13
बिगड़ी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय। रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि मनुष्य को बुद्धिमानी से व्यवहार करना चाहिए । क्योंकि अगर किसी कारण से कुछ गलत हो जाता है, तो इसे सही करना मुश्किल होता है, क्योंकि एक बार दूध खराब हो जाये, तो कितना भी कोशिश कर ले उसमे से न तो मक्खन बनता है और न ही दूध।
दोहा – 14
रहिमन नीर पखान, बूड़े पै सीझै नहीं।तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते है जिस प्रकार जल में पड़ा होने पर भी पत्थर नरम नहीं होता, उसी प्रकार मूर्ख व्यक्ति को ज्ञान दिए जाने पर भी उसकी समझ में कुछ नहीं आता।दोहा – 15
राम न जाते हरिन संग से न रावण साथ।
जो रहीम भावी कतहूँ होत आपने हाथ।।
अर्थ: जो होना है अगर उस पर हमारा बस होता तो ऐसा क्यों हुआ कि राम हिरण के पीछे गए और सीता का हरण हो गया। क्योंकि होनी को जो होना था – उस पर किसी का बस नहीं होता है इसलिए तो राम सोने के हिरण के पीछे गए और सीता को रावण हर कर लंका ले गया।
दोहा – 16
एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥
अर्थ: एक बार में कोई एक कार्य ही करना चाहिए। यदि एक ही साथ आप कई लक्ष्य को प्राप्त करने की कोशिश करेंगे तो कुछ भी हाथ नहीं आता। यह वैसे ही है जैसे जड़ में पानी डालने से ही किसी पौधे में फूल और फल आते हैं।दोहा – 17
समय पाय फल होत है, समय पाय झरी जात।
सदा रहे नहिं एक सी, का रहीम पछितात।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि उपयुक्त समय आने पर वृक्ष में फल लगता है। झड़ने का समय आने पर वह झड़ जाता है। किसी की भी अवस्था सदा एक जैसी नहीं रहती, इसलिए दुःख के समय पछताना व्यर्थ है।
दोहा – 18
बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय॥
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं जिस प्रकार फटे हुए दूध को मथने से मक्खन नहीं निकलता है। उसी प्रकार अगर कोई बात बिगड़ जाती है तो वह दोबारा नहीं बनती।दोहा – 19
रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करे तलवारि॥
अर्थ: रहीमदास जी ने इस दोहा में बहुत ही सुन्दर बात कही है, जिस जगह सुई से काम हो जाये वहां तलवार का कोई काम नहीं होता है। हमें समझना चाहिए कि हर बड़ी और छोटी वस्तुओं का अपना महत्व अपने जगहों पर होता है। बड़ों की तुलना में छोटो की उपेक्षा करना उचित नहीं है!
दोहा – 20
रहिमन निज मन की व्यथा, मन में राखो गोय।
सुनि इठलैहैं लोग सब, बाटि न लैहै कोय॥
अर्थ: हमें अपने मन के दुख को अपने मन में ही रखना चाहिए। क्योंकि दुनिया में कोई भी आपके दुख को बांटने वाला नहीं है। इस संसार में बस लोग दूसरों के दुख को जान कर उसका मजाक ही उड़ाना जानते हैं।
दोहा – 21
छिमा बड़न को चाहिये, छोटन को उतपात।
कह रहीम हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात॥
अर्थ: बड़े को क्षमाशील होना चाहिए, क्योंकि क्षमा करना ही बड़प्पन है, जबकि उत्पात व उदंडता करना छोटे को ही शोभा देता है। छोटों के उत्पात से बड़ों को कभी उद्विग्न नहीं होना चाहिए। छोटों को क्षमा करने से उनका कुछ नहीं घटता। जब भृगु ने विष्णु को लात मारी तो उनका क्या घट गया? कुछ नहीं। इससे विष्णु चुपचाप मुस्कराते रहदोहा – 22
जैसी परे सो सहि रहे, कहि रहीम यह देह।
धरती ही पर परत है, सीत घाम औ मेह।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि जैसे इस धरती पर सर्दी, गर्मी और बारिश होती है और इन सबको पृथ्वी सहन करती है। उसी तरह मनुष्य के शरीर को भी सुख और दुख उठाना और सहना सीखना चाहिए।
दोहा – 23
पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछे कौन।।
अर्थ: वर्षा ऋतु को देखकर कोयल और रहीम के मन ने मौन हो गये है। अब तो मेंढक ही बोलने वाले हैं। हमारी तो कोई बात अब सुनने वाला नहीं है। अर्थात कुछ अवसर ऐसे आते हैं जब गुणवान को चुप रह जाना पड़ता है। उनका कोई आदर नहीं करता और गुणहीन वाचाल व्यक्तियों का ही बोलबाला हो जाता है।
दोहा – 24
बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय।।
अर्थ: मनुष्य को सोच समझ कर व्यवहार करना चाहिए,क्योंकि किसी वजह से अगर बात बिगड़ जाय तो फिर उसे बनाना कठिन होता है। जैसे अगर एक बार दूध फट जाय तो लाख कोशिश करने पर भी उसे मथ कर मक्खन नहीं निकाला जा सकता।
दोहा – 25
रहिमन अंसुवा नयन ढरि, जिय दुःख प्रगट करेइ।
जाहि निकारौ गेह ते, कस न भेद कहि देइ।।
अर्थ: रहीम दास जी कहते है कि आँसू आँख से बहकर मन का दुःख प्रकट कर देते हैं। सत्य ही है कि जिसे घर से निकाला जाएगा, वह घर का भेद दूसरों से बता ही देता है।
दोहा – 26
मन मोटी अरु दूध रस, इनकी सहज सुभाय।
फट जाये तो न मिले, कोटिन करो उपाय।।
अर्थ: मन, मोती, फूल, दूध और रस जब तक सहज और सामान्य रहते हैं तो अच्छे लगते हैं परन्तु यदि एक बार वे फट जाएं तो करोड़ों उपाय कर लो वे फिर वापस अपने स्वाभाविक और सामान्य रूप में नहीं आते।
दोहा – 27
जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।