
प्रेमचन्द किसान जीवन के महान रचनाकार थे - उनकी जानकारी असाधारण थी, साथ ही किसानों से उनका स्नेह भी गहरा था
प्रेमचन्द को किसानों से गहरा लगाव था-उसी प्रकार का लगाव जैसे किसान का अपने खेतों के प्रति और माँ-बाप का अपने बच्चों के प्रति होता है । वे सम्भवत: भारतीय साहित्य में पहले लेखक थे, जिन्होंने जमींदारी प्रथा को समाप्त करने की बात कही और यह प्रश्न उठाया कि किसान और सरकार के बीच यह तीसरा वर्ग ( जमींदारों का) क्यों है? इसकी क्या प्रासंगिकता है? उन्होंने जमींदारों को सुरक्षा देने के प्रश्न पर तत्कालीन सरकार की आलोचना की । प्रेमचन्द अकेले ऐसे बुद्धिजीवी लेखक थे, जिन्होंने किसान जीवन की सूक्ष्म समस्याओं पर ध्यान केन्द्रित करके लिखा और लोगों तथा सरकार का ध्यान आकृष्ट किया।
डॉ. रामविलास शर्मा ने ठीक ही लिखा है, ''हर कोई जानता है कि प्रेमचन्द ने समाज के सभी वर्गों की अपेक्षा किसानों के चित्रण में सबसे अधिक सफलता पायी है । वे हर तरह के किसानों को पहचानते थे, उनके विभिन्न आर्थिक स्तर, उनकी विभिन्न विचारधाराएँ उनकी विभिन्न सामाजिक समस्याएँ किसान-जीवन के हर कोने से परिचित थे । जैसी उनकी जानकारी असाधारण थी, वैसा ही किसानों से उनका स्नेह भी गहरा था । किसानों के सम्पर्क में आनेवाली शोषण की जंगी मशीन के हर-कल-पुर्जे से वे वाकिफ थे । '' सन्देह नहीं कि प्रेमचन्द के समय के किसान जीवन को आज के परिप्रेक्ष्य में समझने के लिएइस पुस्तक की अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका रहेगी ।
प्रेमचन्द को किसान जीवन का महान रचनाकार माना जाता है, जो कि उचित भी है। किसान-जीवन की समस्याओं के प्रति जो गहराई और गम्भीरता उनके रचनाकर्म में दिखती है, वह उनकी राष्ट्रीय हित चिन्ता के कारण है । वे अच्छी तरह समझ चुके थे कि समाज में जो दलित हैं, स्त्रियों हैं, किसान-मज़दूर हैं, इनको सुखी रखने और साथ लेकर चलने से ही राष्ट्रीय समस्याओं का हल हो सकेगा । यहाँ कहने की आवश्यकता नहीं है कि प्रेमचन्द के समय में किसानों की स्थिति बड़ी दयनीय थी। उनके ऊपर एक ओर अँग्रेज़ी शासन का दबाव था तो दूसरी ओर जमींदारों का जुल्म । इन दोनों के बीच पिस रहे किसान अपनी मेहनत की कमाई भी खो देते थे । कहना चाहिए कि उनसे उनकी मेहनत की कमाई छीन ली जाती थी । सन् 1932 के दिसम्बर में लिखे अपने एक लेख ' हतभागे किसान ' में प्रेमचन्द ने लिखा था, ' भारत के अस्सी फीसदी आदमी खेती करते हैं । कई फीसदी वह हैं, जो अपनी आजीविका के लिए किसानों के मुहताज हैं, जैसे गाँव के बढ़ई, लुहार आदि । राष्ट्र के हाथ में जो कुछ विभूति है, वह इन्हीं किसानों और मज़दूरों की मेहनत का सदक़ा है । हमारे स्कूल और विद्यालय, हमारी पुलिस और फ़ौज, हमारी अदालतें और कचहरियाँ सब उन्हीं की कमाई के बल पर चलती हैं, लेकिन वही जो राष्ट्र के अन्न और वस्त्रदाता हैं, पेट भर अन्न को तरसते हैं, जाड़े-पाले में ठिठुरते हैं और मक्खियों की तरह मरते 1 अगस्त, 1993 के अपने एक अन्य लेख ' कृषि सहायक बैंकों की जरूरत ' में उन्होंने लिखा है कि '' कृषि भारत का मुख्य व्यवसाय है, पर उसे नोंचनेवाले तो सब हैं, उसको प्रोत्साहन देनेवाला कोई नहीं । उसे भूखों मरकर, पैसे-पैसे के लिए महाजन का मुँह देखकर, अपना जीवन काटना पड़ता है ।' यह थी प्रेमचन्दयुगीन किसानों की स्थिति । 'गोदान' में भोला होरी से कहता है, '' कौन कहता है कि हम-तुम आदमी हैं । हममें आदमियत कहाँ? आदमी तो वह है, जिसके पास धन है, अख्तियार है, इल्म है । हम लोग तो बैल हैं और जुतने के लिए पैदा हुए हैं ।"3 बहुत पीड़ा के साथएक ओर किसानों पर लूट और दूसरी ओर उनकी स्थिति का कोई ख़याल नहीं । कृषि की उन्नति के विषय में कोई चिन्ता नहीं । प्रेमचन्द इसको रेखांकित करते हुए एक 'डेटा' प्रस्तुत करते हैं, "लार्ड कर्जन ने 1901 में यहाँ की व्यक्तिगत आय का अनुमान तीस रुपये साल किया था । 1915 में एक दूसरे हिसाबदाँ ने इस अनुमान को पचास रुपये तक पहुँचाया और 1915 में वह समय था, जब योरोपीय महाभारत ने चीजों का मूल्य बहुत बढ़ा दिया था । 1930 में वही हालत फिर हो गई, जो 1901 में थी और हिसाब लगाया जाय तो आज तक किसी ने किसानों की दशा की ओर ध्यान नहीं दिया और उनकी दशा आज भी वैसी है, जो पहले थी, इनके खेती के औजार, साधन, कृषि-विधि, क़र्ज़, दरिद्रता, सब कुछ पूर्ववत् है 13प्रेमचन्द इस बात को लेकर बिल्कुल ही साफ थे कि राष्ट्रीय उन्नति के लिए किसानों-मजदूरों का विकास बहुत आवश्यक है । अपनी इसी विचारधारा के तहत वे किसानों के पक्ष में खड़े होते हैं । उनके लिए यह बड़े दुःख का विषय था कि मुट्ठीभर लोग देश की अस्सी फीसदी से अधिक आबादी को चूस रहे हैं । दिन-रात परिश्रम करनेवाले भूखों मरते हैं और आराम से ' खटिया ' तोड़नेवाले मौज करते हैं । उन्होंने अक्टूबर, 1932 में अपने एक लेख में लिखा कि, '' कौन नहीं जानता कि भारत के किसान बुरी तरह कर्ज के नीचे दबे हुए हैं । उनका प्राय: सभी काम कर्ज से ही चलता है -बीज वह सूद पर लेते हैं या पठानों से । बैल भी वह प्राय: फेरी करनेवाले व्यापारियों से उधार ही लिया करते हैं । शादी-गमी, तीर्थ-व्रत में तो अपने सम्मान-रक्षा के लिए उन्हें कर्ज लेना ही पड़ता है । कितने जमींदार और साहूकार किसानों या किसान-मजदूरों को सौ-पचास रुपया उधार देकर उनसे यावज्जीवन मजदूरी कराते रहते हैं उन्होंने ' सवा सेर गेहूँ ' कहानी में भी इसी मार्मिक यथार्थ को उद्घाटित किया है । पिता की मृत्यु के बाद पुत्र से भी बेगार करवाई जाती है और ऐसा कराते हुए मन में कोई हिचक नहीं होती । दुनिया को भगवान का भय दिखानेवाले लोग ऐसे मामलों में भगवान से भी ऊपर हो जाते हैं ।
कर्ज में डूबे भारतीय किसानों के विषय में अपने एक अन्य लेख ' जबरदस्ती ' में प्रेमचन्द ने लिखा, '' भारतीय किसानों की इस समय जैसी दयनीय दशा है, उसे कोई शब्दों में अंकित नहीं कर सकता । उनकी दुर्दशा को वे स्वयं जानते हैं या उनका भगवान जानता है । जमींदार को समय पर मालगुजारी चाहिए सरकार को समय पर लगान चाहिए उधर किसान को खाने के लिए दो मुट्ठी अन्न चाहिए पहनने के लिए एक चीथड़ा चाहिए चाहिए सब कुछ, पर एक ओर तुषार तथा अतिवृष्टि फसल को चौपट कर रही है, एक ओर आँधी उनके रहे-सहे खेत को भी नष्टकर रही है, दूसरी ओर रोग, प्लेग, हैजा, शीतला, उनके नौजवानों को हरी- भरी तथा लहलहाती जवानी में उसी दुनिया से उठाए लिये चली जा रही है, जिस तरह लहलहाता खेत अभी छह दिन पूर्व के पत्थर-पाले से जल गया । गल्ला पैदा हो रहा है, पर भाव इतना मन्दा है कि कोई दो वक्त भोजन भी नहीं कर सकता । स्त्री के तन पर जो दों-चार गहने थे, वो साहूकार के पेट से बचकर सरकार की मालगुजारी के पेट में चले गये । नन्हें बच्चे जो चीथड़ा ओढ़कर जाड़ा काटते थे, वही अब उनका पिता पहनकर तन की लाज ढँक रहा है । माता के पास केवल इतना ही वस्त्र है, जितने से वह घूँघट काढ़ सके- धोती चाहे ठेहुने तक ही क्यों न खिसक आए यह थी भारतीय समाज में किसान की स्थिति । पूस की रात में हल्कू द्वारा जोड़े गये पैसे साहूकार ले लेता है । उसकी फसल जानवर नष्ट कर देते हैं । ठंड में उसके पास कपड़ा नहीं है, इसलिए मारे ठंड के वह जानवरों को नहीं भगा पाता । इतनी दयनीय स्थिति के बाद भी जमींदार से पीछा नहीं छूटता है । उसकी पत्नी मुन्नी दुःखी होकर कहती है, ' अब मजदूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी । ' इससे अधिक अमानवीयता क्या होगी कि भरे पेट के लोग अधिकार समझकर अत्याचार करते हैं । गोदान में होरी कहता है, साठ तक पहुँचने की नौबत न आएगी धनिया । इससे पहले ही चल देंगे । '17 भारतीय किसान का प्रतिनिधित्व करता होरी भारतीय किसान के जीवन के सर्वाधिक कटु पक्ष की ओर इशारा करता है । जिन्हें भूखे रहकर कठिन परिश्रम करना हो, बिना कपडों के पूस की रातें काटनी हों, चैत-बैसाख की धूप-लू में जलना- चलना और ठटना हो, वे भरी जवानी में न मरेंगे तो कौन मरेगा!
प्रेमचन्द किसानों के हित के लिए नये-नये उपाय सोचने में लगे थे, ताकि इस वर्ग का उद्धार हो सके । यहाँ ध्यान देने की आवश्यकता है कि अपने पूरे लेखन में प्रेमचन्द किसानों को जातियों अथवा धर्म में न बाँटकर एक वर्ग के रूप में देखते हैं । इस रूप में देखने पर ही किसानों का हित तब भी था, आज भी है । इस हित-चिन्ता के फलस्वरूप ही वे किसानों के लिए चकबन्दी की बात कर रहे थे । सन् 1932 के अक्टूबर में उन्होंने अपने लेख ' आराजी की चकबन्दी ' में लिखा, 'जब तक चकबन्दी न की जाएगी कृषि में कोई सुधार न होगा, न नयी जिन्सें पैदा की जा सकेंगी । कृषि की उन्नति की यह पहली सीढ़ी है और हमें आशा है, सरकार इसे हाथ में लेने में देर न करेगी ।'1 इसी वर्ष अपने एक अन्य लेख हतभागे किसान में उन्होंने लिखा, ''दूसरी जरूरत जमीन की चकबन्दी है । जमीन का बँटवारा इतनी कसरत से हुआ है और हो रहा है कि जिसकी कोई हद नहीं । दक्षिण में सन् 1771 ई. में औसत जमाबन्दी चालीस एकड़ थी, 1915 ई. में वह केवल सात एकड़ रह गयी । यह डेढ़ एकड़ भी गाँव की चारों दिशाओं में स्थित होता है, इसलिए उसमें बहुत परिश्रम व्यर्थ हो जाता है । चकबन्दी हो जाने से इतना फायदा होगा कि किसान अपने चक के बाड़ों को घेर सकेगा, उसमें कुएँ बनवा सकेगा, खेती की निगरानी कर सकेगा । इससे उपज में कुल बढ़ती होने की आशा हो सकती 19 आज चकबन्दी छोटे किसानों के लिए बहुत राहत की बात है । यद्यपि कुछ लोग पैसे के जोर पर इसमें भी फायदा उठाते ही हैं तथापि यह एक उचित व्यवस्था है, जिसने प्रेमचन्द के बाद के समय (आज़ादी के बाद) में अपनी सार्थकता को बखूबी साबित किया है । प्रेमचन्द की मान्यता थी कि ' हमें तो उन्नति के लिए ऐसे विधानों की जरूरत है, जो समाज में विप्लव किये बिना ही काम में लगाए जा सकें । ''2 कहने की आवश्यकता नहीं कि चकबन्दी एक ऐसा ही विधान है प्रेमचन्द अपने आरम्भिक लेखन में जमींदारी व्यवस्था में सुधार की आकांक्षा रखते दीख पड़ते हैं, किन्तु जैसे-जैसे उनका लेखन प्रौढ़ हुआ है, वैसे -वैसे वे जमींदारी प्रथा के उन्मूलन की ओर अग्रसर होते दीख पड़ते हैं । वे साफ-साफ जमींदारों की उपादेयता पर प्रश्न खड़ा कर देते हैं । उनके लिए कृषि व्यवस्था में अगर कोई महत्त्वपूर्ण है तो सिर्फ किसान और मजदूर । वे इन दोनों वर्गों का जमकर पक्ष लेते हैं । अपने लेख ' हतभागे किसान में ही वे लिखते हैं, '' खेती की पैदावार बढ़ाने की ओर अभी तक काफी ध्यान नहीं दिया गया । सरकार ने अभी तक केवल प्रदर्शन और प्रचार की सीमा के अन्दर रहना ही उपयुक्त समझा है । अच्छे औजारों, अच्छे बीजों, आदतों का केवल दिखा देना की काफी नहीं है । सौ में दो किसान इस प्रदर्शन से फायदा उठा सकते हैं । जिनको भोजन का ठिकाना नहीं है, जो नाक तक ऋण के नीचे दबा हुआ है, उससे यह आशा नहीं की जा सकती है कि वह नयी तरह के बीज या औजार या खाद खरीदेगा । उसे तो पुरानी लीक से जी भर हटना भी दुस्साहस मालूम होता है । इसमें कोई परीक्षा करने की, किसी नयी परीक्षा का जोखिम उठाने की सामर्थ्य नहीं है । उसे तो लागत के दामों में यह चीजें किस्तवार अदायगी की शर्त पर दी जानी चाहिए । सरकार के पास इन कामों के लिए हमेशा धन का अभाव रहता