
गाँधी' हो या 'ग़ालिब' हो | साहिर लुधियानवी
'गाँधी' हो या 'ग़ालिब' हो
ख़त्म हुआ दोनों का जश्न
आओ उन्हें अब कर दें दफ़्न
ख़त्म करो तहज़ीब की बात
बंद करो कल्चर का शोर
सत्य अहिंसा सब बकवास
हम भी क़ातिल तुम भी चोर
ख़त्म हुआ दोनों का जश्न
आओ उन्हें अब कर दें दफ़्न
वो बस्ती वो गाँव ही क्या
जिस में हरीजन हो आज़ाद
वो क़स्बा वो शहर ही क्या
जो न बने अहमदाबाद
ख़त्म हुआ दोनों का जश्न
आओ उन्हें अब कर दें दफ़्न
'गाँधी' हो या 'ग़ालिब' हो
दोनों का क्या काम यहाँ
अब के बरस भी क़त्ल हुई
एक की शिकस्ता इक की ज़बाँ
ख़त्म हुआ दोनों का जश्न
आओ उन्हें अब कर दें दफ़्न
सानेहा | असरार-उल-हक़ मजाज़
दर्द-ओ-ग़म-ए-हयात का दरमाँ चला गया
वो ख़िज़्र-ए-अस्र-ओ-ईसा-ए-दौराँ चला गया
हिन्दू चला गया न मुसलमाँ चला गया
इंसाँ की जुस्तुजू में इक इंसाँ चला गया
रक़्साँ चला गया न ग़ज़ल-ख़्वाँ चला गया
सोज़-ओ-गुदाज़ ओ दर्द में ग़लताँ चला गया
बरहम है ज़ुल्फ़-ए-कुफ़्र तो ईमाँ सर-निगूँ
वो फ़ख़्र-ए-कुफ्र ओ नाज़िश-ए-ईमाँ चला गया
बीमार ज़िंदगी की करे कौन दिल-दही
नब्बाज़ ओ चारासाज़-ए-मरीज़ाँ चला गया
किस की नज़र पड़ेगी अब ''इस्याँ'' पे लुत्फ़ की
वो महरम-ए-नज़ाकत-ए-इस्याँ चला गया
वो राज़-दार-ए-महफ़िल-ए-याराँ नहीं रहा
वो ग़म-गुसार-ए-बज़्म-ए-अरीफ़ाँ चला गया
अब काफ़िरी में रस्म-ओ-राह-ए-दिलबरी नहीं
ईमाँ की बात ये है कि ईमाँ चला गया
इक बे-खु़द-ए-सुरूर-ए-दिल-ओ-जाँ नहीं रहा
इक आशिक़-ए-सदाक़त-ए-पिन्हाँ चला गया
बा-चश्म-ए-नम है आज ज़ुलेख़ा-ए-काएनात
ज़िंदाँ-शिकन वो यूसुफ़-ए-ज़िंदाँ चला गया
ऐ आरज़ू वो चश्मा-ए-हैवाँ न कर तलाश
ज़ुल्मात से वो चश्मा-ए-हैवाँ चला गया
अब संग-ओ-ख़िश्त ओ ख़ाक ओ ख़ज़फ़ सर-बुलंद हैं
ताज-ए-वतन का लाल-ए-दरख़्शाँ चला गया
अब अहरमन के हाथ में है तेग़-ए-ख़ूँ-चकाँ
ख़ुश है कि दस्त-ओ-बाज़ू-ए-यज़्दाँ चला गया
देव-ए-बदी से मार्का-ए-सख़्त ही सही
ये तो नहीं कि ज़ोर-ए-जवानाँ चला गया
क्या अहल-ए-दिल में जज़्बा-ए-ग़ैरत नहीं रहा
क्या अज़्म-ए-सर-फ़रोशी-ए-मर्दां चला गया
क्या बाग़ियों की आतिश-ए-दिल सर्द हो गई
क्या सरकशों का जज़्बा-ए-पिनहां चला गया
क्या वो जुनून-ओ-जज़्बा-ए-बेदार मर गया
क्या वो शबाब-ए-हश्र-बदामाँ चला गया
ख़ुश है बदी जो दाम ये नेकी पे डाल के
रख देंगे हम बदी का कलेजा निकाल के
'गाँधी-जी' की याद में! | जिगर मुरादाबादी
वही है शोर-ए-हाए-ओ-हू, वही हुजूम-ए-मर्द-ओ-ज़न
मगर वो हुस्न-ए-ज़िंदगी, मगर वो जन्नत-ए-वतन
वही ज़मीं, वहीं ज़माँ, वही मकीं, वही मकाँ
मगर सुरूर-ए-यक-दिली, मगर नशात-ए-अंजुमन
वही है शौक़-ए-नौ-ब-नौ, वही जमाल-ए-रंग-रंग
मगर वो इस्मत-ए-नज़र, तहारत-ए-लब-ओ-दहन
तरक़्क़ियों पे गरचे हैं, तमद्दुन-ओ-मुआशरत
मगर वो हुस्न-ए-सादगी, वो सादगी का बाँकपन
शराब-ए-नौ की मस्तियाँ, कि अल-हफ़ीज़-ओ-अल-अमाँ
मगर वो इक लतीफ़ सा सुरूर-ए-बादा-ए-कुहन
ये नग़्मा-ए-हयात है कि है अजल तराना-संज
ये दौर-ए-काएनात है कि रक़्स में है अहरमन
हज़ार-दर-हज़ार हैं अगरचे रहबरान-ए-मुल्क
मगर वो पीर-ए-नौजवाँ, वो एक मर्द-ए-सफ़-शिकन
वही महात्मा वही शहीद-ए-अम्न-ओ-आश्ती
प्रेम जिस की ज़िंदगी, ख़ुलूस जिस का पैरहन
वही सितारे हैं, मगर कहाँ वो माहताब-ए-हिन्द
वही है अंजुमन, मगर कहाँ वो सद्र-ए-अंजुमन
आह गाँधी | नज़ीर बनारसी
तिरे मातम में शामिल हैं ज़मीन ओ आसमाँ वाले
अहिंसा के पुजारी सोग में हैं दो जहाँ वाले
तिरा अरमान पूरा होगा ऐ अम्न-ओ-अमाँ वाले
तिरे झंडे के नीचे आएँगे सारे जहाँ वाले
मिरे बूढ़े बहादुर इस बुढ़ापे में जवाँ-मर्दी
निशाँ गोली के सीने पर हैं गोली के निशाँ वाले
निशाँ हैं गोलियों के या खिले हैं फूल सीने पर
उसी को मार डाला जिस ने सर ऊँचा किया सब का
न क्यूँ ग़ैरत से सर नीचा करें हिन्दोस्ताँ वाले
मिरे गाँधी ज़मीं वालों ने तेरी क़द्र जब कम की
उठा कर ले गए तुझ को ज़मीं से आसमाँ वाले
ज़मीं पर जिन का मातम है फ़लक पर धूम है उन की
ज़रा सी देर में देखो कहाँ पहुँचे कहाँ वाले
पहुँचता धूम से मंज़िल पे अपना कारवाँ अब तक
अगर दुश्मन न होते कारवाँ के कारवाँ वाले
सुनेगा ऐ 'नज़ीर' अब कौन मज़लूमों की फ़रियादें
फ़ुग़ाँ ले कर कहाँ जाएँगे अब आह-ओ-फ़ुग़ाँ वाले
राहबर देश-भगती का वो | अबरार किरतपुरी
राहबर देश-भगती का वो
शाह था इक लंगोटी का वो
प्यार के वो लुटाता था फूल
था अहिंसा उसी का उसूल
नर्मी से ज़िंदगी तंग की
उस ने अंग्रेज़ों से जंग की
हौसले हो गए उन के पस्त
आन पहुँची जो पंद्रह अगस्त
दिल हर इक शाद हो ही गया
देश आज़ाद हो ही गया
दोस्ती का सबक़ दे गया
मर के जावेद वो हो गया
फिर करें याद उस के उसूल
और चढ़ाएँ अक़ीदत के फूल
गाँधी जी | सय्यदा फ़रहत
सच्ची बात हमेशा कहना
सच्चाई के रस्ते चलना
बापू ने समझाया है
बापू ने समझाया है
एक ख़ुदा ने सब को बनाया
उस का सब के सर पर साया
बापू ने समझाया है
बापू ने समझाया है
भारत माँ है माता सब की
धरती माँ अन-दाता सब की
बापू ने समझाया है
बापू ने समझाया है
हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई
आपस में हैं भाई भाई
बापू ने समझाया है
बापू ने समझाया है
महात्मा-ग़ाँधी | नुशूर वाहिदी
शब-ए-एशिया के अँधेरे में सर-ए-राह जिस की थी रौशनी
वो गौहर किसी ने छुपा लिया वो दिया किसी ने बुझा दिया
जो शहीद-ए-ज़ौक़-ए-हयात हो उसे क्यूँ कहो कि वो मर गया
उसे यूँ ही रहने दो हश्र तक ये जनाज़ा किस ने उठा दिया
तिरी ज़िंदगी भी चराग़ थी तेरी गर्म-ए-ग़म भी चराग़ है
कभी ये चराग़ जला दिया कभी वो चराग़ जला दिया
जिसे ज़ीस्त से कोई प्यार था उसे ज़हर से सरोकार था
वही ख़ाक-ओ-ख़ूँ में पड़ा मिला जिसे दर्द-ए-दिल ने मज़ा दिया
जिसे दुश्मनी पे ग़ुरूर था उसे दोस्ती से शिकस्त दी
जो धड़क रहे थे अलग अलग उन्हें दो दिलों को मिला दिया
जो न दाग़ चेहरा मिटा सके उन्हें तोड़ना ही था आइना
जो ख़ज़ाना लूट सके नहीं उसे रहज़नों ने लुटा दिया
वो हमेशा के लिए चुप हुए मगर इक जहाँ को ज़बान दो
वो हमेशा के लिए सो गए मगर इक जहाँ को जगा दिया
महात्मा-ग़ाँधी का क़त्ल | आनंद नारायण मुल्ला
मशरिक़ का दिया गुल होता है मग़रिब पे सियाही छाती है
हर दिल सन सा हो जाता है हर साँस की लौ थर्राती है
उत्तर दक्खिन पूरब पच्छिम हर सम्त से इक चीख़ आती है
नौ-ए-इंसाँ काँधों पे लिए गाँधी की अर्थी जाती है
आकाश के तारे बुझते हैं धरती से धुआँ सा उठता है
दुनिया को ये लगता है जैसे सर से कोई साया उठता है
कुछ देर को नब्ज़-ए-आलम भी चलते चलते रुक जाती है
हर मुल्क का परचम गिरता है हर क़ौम को हिचकी आती है
तहज़ीब जहाँ थर्राती है तारीख़-ए-बशर शरमाती है
मौत अपने कटे पर ख़ुद जैसे दिल ही दिल में पछताती है
इंसाँ वो उठा जिस का सानी सदियों में भी दुनिया जन न सकी
मूरत वो मिटी नक़्क़ाश से भी जोबन के दोबारा बन न सकी
देखा नहीं जाता आँखों से ये मंज़र-ए-इबरतनाक-ए-वतन
फूलों के लहू के प्यासे हैं अपने ही ख़स-ओ-ख़ाशाक-ए-वतन
हाथों से बुझाया ख़ुद अपने वो शोला-ए-रूह पाक-ए-वतन
दाग़ उस से सियह-तर कोई नहीं दामन पे तिरे ऐ ख़ाक-ए-वतन
पैग़ाम-ए-अजल लाई अपने उस सब से बड़े मोहसिन के लिए
ऐ वाए-तुलू-ए-आज़ादी आज़ाद हुए उस दिन के लिए
जब नाख़ुन-ए-हिकमत ही टूटे दुश्वार को आसाँ कौन करे
जब ख़ुश्क हुआ अब्र-ए-बाराँ ही शाख़ों को गुल-अफ़शाँ कौन करे
जब शोला-ए-मीना सर्द हो ख़ुद जामों को फ़रोज़ाँ कौन करे
जब सूरज ही गुल हो जाए तारों में चराग़ाँ कौन करे
नाशाद वतन अफ़्सोस तिरी क़िस्मत का सितारा टूट गया
उँगली को पकड़ कर चलते थे जिस की वही रहबर छूट गया
उस हुस्न से कुछ हस्ती में तिरी अज़दाद हुए थे आ के बहम
इक ख़्वाब-ओ-हक़ीक़त का संगम मिट्टी पे क़दम नज़रों में इरम
इक जिस्म-ए-नहीफ़-ओ-ज़ार मगर इक अज़्म-ए-जवान-ओ-मुस्तहकम
चश्म-ए-बीना मा'सूम का दिल ख़ुर्शीद नफ़स ज़ौक़-ए-शबनम
वो इज्ज़-ए-ग़ुरूर-ए-सुल्ताँ भी जिस के आगे झुक जाता था
वो मोम कि जिस से टकरा कर लोहे को पसीना आता था
सीने में जो दे काँटों को भी जा उस गुल की लताफ़त क्या कहिए
जो ज़हर पिए अमृत कर के उस लब की हलावत क्या कहिए
जिस साँस में दुनिया जाँ पाए उस साँस की निकहत क्या कहिए
जिस मौत पे हस्ती नाज़ करे उस मौत की अज़्मत क्या कहिए
ये मौत न थी क़ुदरत ने तिरे सर पर रक्खा इक ताज-ए-हयात
थी ज़ीस्त तिरी मेराज-ए-वफ़ा और मौत तिरी मेराज-ए-हयात
यकसाँ नज़दीक-ओ-दूर पे था बारान-ए-फ़ैज़-ए-आम तिरा
हर दश्त-ओ-चमन हर कोह-ओ-दमन में गूँजा है पैग़ाम तिरा
हर ख़ुश्क-ओ-तर हस्ती पे रक़म है ख़त्त-ए-जली में नाम तिरा
हर ज़र्रे में तेरा मा'बद हर क़तरा तीरथ धाम तिरा
उस लुत्फ़-ओ-करम के आईं में मर कर भी न कुछ तरमीम हुई
इस मुल्क के कोने कोने में मिट्टी भी तिरी तक़्सीम हुई
तारीख़ में क़ौमों की उभरे कैसे कैसे मुम्ताज़ बशर
कुछ मुल्क के तख़्त-नशीं कुछ तख़्त-फ़लक के ताज-बसर
अपनों के लिए जाम-ओ-सहबा औरों के लिए शमशीर-ओ-तबर
नर्द-ओ-इंसाँ टपती ही रही दुनिया की बिसात-ए-ताक़त पर
मख़्लूक़ ख़ुदा की बन के सिपर मैदाँ में दिलावर एक तू ही
ईमाँ के पयम्बर आए बहुत इंसाँ का पयम्बर एक तू ही
बाज़ू-ए-फ़र्दा उड़ उड़ के थके तिरी रिफ़अत तक जा न सके
ज़ेहनों की तजल्ली काम आई ख़ाके भी तिरे हाथ आ न सके
अलफ़ाज़-ओ-मा'नी ख़त्म हुए उनवाँ भी तिरा अपना न सके
नज़रों के कँवल जल जल के बुझे परछाईं भी तेरी पा न सके
हर ईल्म-ओ-यकीं से बाला-तर तू है वो सिपेह्र-ए-ताबिंदा
सूफ़ी की जहाँ नीची है नज़र शाइ'र का तसव्वुर शर्मिंदा
पस्ती-ए-सियासत को तू ने अपने क़ामत से रिफ़अत दी
ईमाँ की तंग-ख़याली को इंसाँ के ग़म की वुसअ'त दी
हर साँस से दर्स-ए-अमन दिया हर जब्र पे दाद-ए-उल्फ़त दी
क़ातिल को भी गर लब हिल न सके आँखों से दुआ-ए-रहमत दी
हिंसा को अहिंसा का अपनी पैग़ाम सुनाने आया था
नफ़रत की मारी दुनिया में इक प्रेम संदेसा लाया था
उस प्रेम संदेसे को तेरे सीनों की अमानत बनना है
सीनों से कुदूरत धोने को इक मौज-ए-नदामत बनना है
उस मौज को बढ़ते बढ़ते फिर सैलाब-ए-मोहब्बत बनना है
उस सैल-ए-रवाँ के धारे को इस मुल्क की क़िस्मत बनना है
जब तक न बहेगा ये धारा शादाब न होगा बाग़ तिरा
ऐ ख़ाक-ए-वतन दामन से तिरे धुलने का नहीं ये दाग़ तिरा
जाते जाते भी तो हम को इक ज़ीस्त का उनवाँ दे के गया
बुझती हुई शम-ए-महफ़िल को फिर शो'ला-ए-रक़्साँ दे के गया
भटके हुए गाम-ए-इंसाँ को फिर जादा-ए-इंसाँ दे के गया
हर साहिल-ए-ज़ुल्मत को अपना मीनार-ए-दरख़्शाँ दे के गया
तू चुप है लेकिन सदियों तक गूँजेगी सदा-ए-साज़ तिरी
दुनिया को अँधेरी रातों में ढारस देगी आवाज़ तिरी
बाबा गाँधी | आफ़ताब रईस पानीपती
स्वराज का झंडा भारत में गड़वा दिया गाँधी बाबा ने
दिल क़ौम-ओ-वतन के दुश्मन का दहला दिया गाँधी बाबा ने
उल्फ़त की राह में मर जाना पर नाम जहाँ में कर जाना
ये पाठ वतन के बच्चों को सिखला दिया गाँधी बाबा ने
इक धर्म की ताक़त दिखला कर ज़ालिम के छक्के छुड़वा कर
भारत का लोहा दुनिया से मनवा दिया गाँधी बाबा ने
ऐ क़ौम वतन के परवानो लो अपने फ़र्ज़ को पहचानो
अब जेल से ये पैग़ाम हमें भिजवा दिया गाँधी बाबा ने
चर्ख़े की तोप चला दो तुम ग़ैरों के छक्के छुड़ा दो तुम
ये हिन्द का चक्र-सुदर्शन है समझा दिया गाँधी बाबा ने
नफ़रत थी ग़रीबों से जिन को हैं शाद अछूतों से मिल कर
इक प्रेम-प्याला दुनिया को पिलवा दिया गाँधी बाबा ने
गिर्दाब में क़ौम की कश्ती थी तूफ़ान बपा थे आफ़त के
नेशन का बेड़ा साहिल पर लगवा दिया गाँधी बाबा ने
भगवान भगत ने हिम्मत की इक प्रेम-ज्वाला जाग उठी
करवा कर शीर-ओ-शकर सब को दिखला दिया गाँधी बाबा ने
हँस हँस कर क़ौम के बच्चों ने सीनों पर गोलियाँ खाई हैं
भारत की रह में मर मिटना सिखला दिया गाँधी बाबा ने
ग़ैरों के झानसों में आना दुश्वार है हिन्द के लालों को
आँखों से ग़फ़लत का पर्दा उठवा दिया गाँधी बाबा ने
गाँधी | साहिर होशियारपुरी
एक फ़क़ीर
एक इंसाँ पैकर-ए-इख़्लास रूह-ए-रास्ती
इक फ़क़ीर-ए-बे-नवा ईसार जिस की ज़िंदगी
जिस के हर क़ौल-ओ-अमल में अम्न का पैग़ाम था
जिस का हर इक़दाम गोया आफ़ियत-अंजाम था
जिस की दुनिया बंदगी भगती सुरूर-ए-जावेदाँ
जिस की दुनिया कैफ़-ओ-सरमस्ती की हासिल बे-गुमाँ
आश्ती थी जिस की फ़ितरत जिस का मज़हब प्यार था
ख़िदमत-ए-इंसानियत का जो अलम-बरदार था
अज़्म ने जिस के हर इक मुश्किल को आसाँ कर दिया
जज़्बा-ए-एहसास-ए-ख़ुद्दारी बशर में भर दिया
नाज़ उठाए हिन्द के वो हिन्द का ग़म-ख़्वार था
कारवान-ए-हुर्रियत का रहबर-ओ-सालार था
ये भी है मोजिज़-बयानी उस की हर तहरीर की
नक़्श-ए-फ़र्सूदा से पैदा इक नई तस्वीर की
ख़ाक से शो'ले उठे और आसमाँ पर छा गए
माह-ओ-अंजुम बन गए कौन-ओ-मकाँ पर छा गए
तीरगी भागी जहालत की फ़ज़ा छुटने लगी
हौले हौले तीरा-ओ-तारीक शब कटने लगी
हर तरफ़ कैफ़-ओ-मसर्रत हर तरफ़ नूर-ओ-सुरूर
ग़ुंचे ग़ुंचे पर तबस्सुम चश्म-ए-नर्गिस पर ग़ुरूर
ये फ़ुसूँ-कारी हुई जिस के सबब वो कौन था
ये जुनूँ-कारी हुई जिस के सबब वो कौन था
नाम था गाँधी मगर उस के हज़ारों नाम हैं
एक मय-ख़ाना है जिस में हर तरह के जाम हैं
ज़िक्र-ए-गाँधी | आदिल जाफ़री
एक-आध साल से है फ़ज़ा मुल्क की कुछ और
ग़ालिब सदी के बाद है गाँधी सदी का दौर
गाँधी को कौन ऐसा है जो जानता न हो
इज़्ज़त के साथ उन को बड़ा मानता न हो
बापू तो उन को प्यार से कहते हैं आज भी
हर दिल पे सच जो पूछिए है उन का राज भी
दम से उन्हीं के दौर-ए-ग़ुलामी हुआ तमाम
आसानी में बदल गया दुश्वार था जो काम
उस रहबर-ए-अज़ीम ने हम को वो बल दिए
अंग्रेज़ मुल्क छोड़ के ख़ामोश चल दिए
सच और उस के साथ अहिंसा की धूम है
दुनिया का अब समाधी पे उन की हुजूम है
हर शख़्स सर-निगूँ है बड़े एहतिराम से
'आदिल' ये क़द्र होती है बे-लौस काम से
गाँधी-जयंती पर | कँवल डिबाइवी
उठी चारों तरफ़ से जब कि ज़ुल्म-ओ-जब्र की आँधी
पयाम-ए-अम्न ले कर आ गए रूह-ए-ज़माँ गाँधी
बने हिन्दोस्ताँ के वास्ते वो रहबर-ए-कामिल
तवस्सुल से उन्ही के पाई हम ने अपनी ख़ुद मंज़िल
हुई रौशन उजाले से दयार-ए-हिन्द की वादी
जलाई इस तरह की आप ने इक शम-ए-आज़ादी
उन्ही ने जब्र से अंग्रेज़ के हम को छुड़ाया था
सदाक़त का शराफ़त का हमें रस्ता बताया था
दिखाई राह वो हम को जो गौतम ने दिखाई थी
बताई बात वो फिर से जो ईसा ने बताई थी
उख़ुव्वत के वो दरिया थे मोहब्बत के वो साहिल थे
अहिंसा के वो दाई' थे वो यक-जेहती के क़ाइल थे
सबक़ फिर से पढ़ाया था जहाँ-भर को भलाई का
ज़माना आज भी मश्कूर है उस हक़ के दाई' का
ग़रीबों की नहीफ़ों की हमेशा दस्त-गीरी की
न पर्वा की मुसीबत की न पर्वा की असीरी की
हमारे दिल मुनव्वर कर दिए नूर-ए-मोहब्बत से
हुए आगाह अहल-ए-दहर रम्ज़-ए-आदमियत से
वतन के आसमाँ पर एक रख़्शंदा सितारे थे
हमें ये फ़ख़्र है अहल-ए-जहाँ गाँधी हमारे थे
गाँधी-जी की आवाज़ |नाज़िश प्रतापगढ़ी
सलाम ऐ उफ़ुक़-ए-हिन्द के हसीं तारो
सलाम तुम पे सिपहर-ए-वतन के मह-पारो
सलाम तुम पे मिरे बच्चो ऐ मिरे प्यारो
भुलाए बैठे हो तुम मुझ को किस लिए यारो
जलाओ मेरे पयामात के दिए यारो
सुनो कि मेरी तमन्ना-ओ-आरज़ू तुम हो
सुनो कि मादर-ए-भारत की आबरू तुम हो
सुनो कि अम्न-ए-ज़माना की जुस्तुजू तुम हो
ख़मोश बैठे हो क्यूँ अपने लब सिए यारो
जलाओ मेरे पयामात के दिए यारो
सलाम तुम पे कि मेरे चमन के फूल हो तुम
मिरी नज़र मिरी फ़ितरत मिरा उसूल हो तुम
मगर ये क्या हुआ किस वास्ते मलूल हो तुम
ये तुम ने चंद ग़लत काम क्यूँ किए यारो
जलाओ मेरे पयामात के दिए यारो
वतन में ख़ून के दरिया बहा दिए तुम ने
सभी नुक़ूश-ए-अहिंसा मिटा दिए तुम ने
रिवाज-कार-ए-मोहब्बत भला दिए तुम ने
रसूम-ए-मेहर-ओ-वफ़ा तर्क कर दिए यारो
जलाओ मेरे पयामात के दिए यारो
सबक़ पढ़ाया था तुम को अदम-तशद्दुद का
तुम्हें बताया था मैं ने गुनाह है हिंसा
ये तुम ने किस लिए तेग़-ओ-तबर से काम लिया
तुम्हारे हाथों में ख़ंजर हैं किस लिए यारो
जलाओ