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श्रीमद भगवद गीता के कुछ श्लोक एवं भावार्थ

योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय।

सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।

अर्थ- हे धनंजय (अर्जुन), कर्म न करने का आग्रह त्यागकर, यश-अपयश के विषय में समबुद्धि होकर योगयुक्त होकर, कर्म कर, (क्योंकि) समत्व को ही योग कहते हैं।

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नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।

न चाभावयत: शांतिरशांतस्य कुत: सुखम्।।

अर्थ- योगरहित पुरुष में निश्चय करने की बुद्धि नहीं होती और उसके मन में भावना भी नहीं होती। ऐसे भावनारहित पुरुष को शांति नहीं मिलती और जिसे शांति नहीं, उसे सुख कहां से मिलेगा।

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विहाय कामान् य: कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह:।

निर्ममो निरहंकार स शांतिमधिगच्छति।।

अर्थ- जो मनुष्य सभी इच्छाओं व कामनाओं को त्याग कर ममता रहित और अहंकार रहित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है, उसे ही शांति प्राप्त होती है।

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न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।

कार्यते ह्यश: कर्म सर्व प्रकृतिजैर्गुणै:।।

अर्थ- कोई भी मनुष्य क्षण भर भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। सभी प्राणी प्रकृति के अधीन हैं और प्रकृति अपने अनुसार हर प्राणी से कर्म करवाती है और उसके परिणाम भी देती है।

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नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।

शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:।।

अर्थ- तू शास्त्रों में बताए गए अपने धर्म के अनुसार कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने

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