
कवि चेतन सृष्टि के कर्ता हैं, हम कवि लोग ब्रह्मा हैं... - केदारनाथ अग्रवाल
आज नदी बिलकुल उदास थी.
सोई थी अपने पानी में,
उसके दर्पण पर-
बादल का वस्त्र पड़ा था.
मैंने उसको नहीं जगाया,
दबे पांव घर वापस आया
यह केदारनाथ अग्रवाल की एक कविता है. प्रकृति से स्वप्न में भी जो इतना प्रेम कर सकता है, वही ऐसा गढ़ सकता है. प्रगतिशील काव्य-धारा के प्रमुख कवि केदारनाथ अग्रवाल का जन्म 1 अप्रैल, 1911 को उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के कमासिन गाँव में हुआ था. वह प्रकृति और मानवता को उकेरने वाले कवि थे. पिता हनुमान प्रसाद अग्रवाल स्वयं एक कवि थे. 'मधुरिम' नाम से उनका एक काव्य संकलन प्रकाशित भी हुआ था. केदार जी को काव्य-सृजन की प्रेरणा परिवार से ही मिली थी. ग्रामीण परिवेश में रहने के चलते केदारनाथ अग्रवाल के मन में सामुदायिक संस्कार और प्रकृति के प्रति लगाव पैदा हुआ, जो जीवन भर उनकी कविताओं में झलकता रहा.
गुम्बज के ऊपर बैठी है, कौंसिल घर की मैना,
सुंदर सुख की मधुर धूप है, सेंक रही है डैना.
तापस वेश नहीं है उसका, वह है अब महारानी,
त्याग-तपस्या का फल पाकर, जी में बहुत अघानी.
कहता है केदार सुनो जी! मैना है निर्द्वंद्व,
सत्य-अहिंसा आदर्शों के, गाती है प्रिय छंद.
केदारनाथ अग्रवाल का काव्य-संग्रह 'युग की गंगा' देश के आजाद होने से पहले ही मार्च, 1947 में प्रकाशित हुआ था. हिंदी साहित्य के इतिहास को समझने के लिए यह संग्रह एक बहुमूल्य दस्तावेज़ है. केदारनाथ अग्रवाल जन-गण-मन को मानवता का स्वाद चखाने वाले अमर कवि थे. केदारनाथ अग्रवाल मार्क्सवादी दर्शन से खासे प्रभावित थे. इसे उन्होंने जीवन में भी अपनाया और सृजन में भी. वह किसी भी तरह के शोषण के विरोधी थे. साम्यवाद को जीवन का आधार मानकर उन्होंने जनसाधारण के जीवन की गहरी व व्यापक संवेदनाओं को अपनी कविताओं में मुखरित किया. कवि केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में भारत की धरती की सुगंध और आस्था का स्वर मिलता है.
ओस-बूंद कहती है; लिख दूं
नव-गुलाब पर मन की बात.
कवि कहता है: मैं भी लिख दूं
प्रिय शब्दों में मन की बात.
ओस-बूंद लिख सकी नहीं कुछ
नव-गुलाब हो गया मलीन.
पर कवि ने लिख दिया ओस से
नव-गुलाब पर काव्य नवीन.
बचपन में घर-परिवार से मिले संस्कारों ने उन्हें ग़रीब और पीड़ितवर्ग के लोगों के संघर्षपूर्ण जीवन से वाकिफ़ होने का अवसर दिया था. बाद में क़ानूनी शिक्षा हासिल करते समय उन्हें इस वर्ग के उद्धार के उपाय केवल मार्क्सवाद में दिखे. यहीं वह प्रगतिशील विचारधारा से परिचित हुए. यह उनके जीवन का आत्ममंथन का दौर था, जिससे आगे चलकर वह एक समर्पित वकील व अनूठे कवि बने. मानवता, मनुष्य के संघर्ष उनकी कविताओं के प्रेरक तत्व बने. उनकी 'वीरांगना' शीर्षक कविता में इसकी बानगी देखें. -
मैंने उसको
जब-जब देखा
लोहा देखा
लोहे जैसा-
तपते देखा-
गलते देखा-
ढलते देखा
मैंने उसको
गोली जैसा
चलते देखा.
केदारनाथ अग्रवाल की का