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हरिजन-गाथा - नागार्जुन

एक


ऐसा तो कभी नहीं हुआ था!

महसूस करने लगीं वे

एक अनोखी बेचैनी

एक अपूर्व आकुलता

उनकी गर्भकुक्षियों के अंदर

बार-बार उठने लगी टीसें

लगाने लगे दौड़ उनके भ्रूण

अंदर ही अंदर

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था


ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि

हरिजन-माताएँ अपने भ्रूणों के जनकों को

खो चुकी हों एक पैशाचिक दुष्कांड में

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था...


ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि

एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं—

तेरह के तेरह अभागे—

अकिंचन मनुपुत्र

ज़िंदा झोंक दिए गए हों

प्रचंड अग्नि की विकराल लपटों में

साधन संपन्न ऊँची जातियों वाले

सौ-सौ मनुपुत्रों द्वारा!

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था...


ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि

महज़ दस मील दूर पड़ता हो थाना

और दरोग़ा जी तक बार-बार

ख़बरें पहुँचा दी गई हों संभावित दुर्घटनाओं की


और, निरंतर कई दिनों तक

चलती रही हों तैयारियाँ सरेआम

(किरासिन के कनस्तर, मोटे-मोटे लक्क्ड़,

उपलों के ढेर, सूखी घास-फूस के पूले

जुटाए गए हों उल्लासपूर्वक)

और एक विराट चिताकुंड के लिए

खोदा गया हो गड्ढा हँस-हँसकर

और ऊँची जातियों वाली वो समूची आबादी

आ गई हो होली वाले 'सुपर मौज़' के मूड में

और, इस तरह ज़िंदा झोंक दिए गए हों

तेरह के तेरह अभागे मनुपुत्र

सौ-सौ भाग्यवान मनुपुत्रों द्वारा

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था...

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था...


दो


चकित हुए दोनों वयस्क बुजुर्ग

ऐसा नवजातक

न तो देखा था, न सुना ही था आज तक!

पैदा हुआ है दस रोज़ पहले अपनी बिरादरी में

क्या करेगा भला आगे चलकर?

रामजी के आसरे जी गया अगर

कौन-सी माटी गोड़ेगा?

कौन-सा ढेला फोड़ेगा?

मग्गह का यह बदनाम इलाक़ा

जाने कैसा सलूक करेगा इस बालक से

पैदा हुआ है बेचारा—

भूमिहीन बँधुआ मज़दूरों के घर में

जीवन गुज़ारेगा हैवान की तरह

भटकेगा जहाँ-तहाँ बनमानुस जैसा

अधपेटा रहेगा अधनंगा डोलेगा

तोतला होगा कि साफ़-साफ़ बोलेगा

जाने क्या करेगा

बहादुर होगा कि बेमौत मरेगा...

फ़िक्र की तलैया में खाने लगे गोते

वयस्क बुजुर्ग दोनों, एक ही बिरादरी के हरिजन

सोचने लगे बार-बार...

कैसे तो अनोखे हैं अभागे के हाथ-पैर

राम जी ही करेंगे इसकी ख़ैर

हम कैसे जानेंगे, हम ठहरे हैवान

देखो तो कैसा मुलुर-मुलुर देख रहा शैतान!

सोचते रहे दोनों बार-बार...


हाल ही में घटित हुआ था वो विराट दुष्कांड...

झोंक दिए गए थे तेरह निरपराध हरिजन

सुसज्जित चिता में...


यह पैशाचिक नरमेध

पैदा कर गया है दहशत जन-जन के मन में

इन बूढ़ों की तो नींद ही उड़ गई है तब से!

बाक़ी नहीं बचे हैं पलकों के निशान

दिखते हैं दृगों के कोर ही कोर

देती है जब-तब पहरा पपोटों पर

सील-मुहर सूखी कीचड़ की


उनमें से एक बोला दूसरे से

बच्चे की हथेलियों के निशान

दिखलाएँगे गुरु जी से

वो ज़रूर कुछ न कु़छ बतलाएँगे

इसकी क़िस्मत के बारे में


देखो तो ससुरे के कान हैं कैसे लंबे

आँखें हैं छोटी पर कितनी तेज़ हैं

कैसी तेज़ रोशनी फूट रही है इनसे!

सिर हिलाकर और स्वर खींचकर,

बुद्धू ने कहा— 

हाँ जी खदेरन, गुरु जी ही देखेंगे इसको

बताएँगे वही इस कलुए की क़िस्मत के बारे में

चलो, चलें, बुला लावें गुरु महाराज को...


पास खड़ी थी दस साला छोकरी

दद्दू के हाथों से ले लिया शिशु को

सँभलकर चली गई झोंपड़ी के अंदर


अगले नहीं, उससे अगले रोज़

पधारे गुरु महाराज

रैदासी कुटिया के अधेड़ संत ग़रीबदास

बकरी वाली गंगा-जमनी दाढ़ी थी

लटक रहा था गले से

अँगूठानुमा ज़रा-सा टुकड़ा तुलसी काठ का

कद था नाटा, सूरत थी साँवली

कपार पर, बाईं तरफ घोड़े के खुर का

निशान था

चेहरा था गोल-मटोल, आँखें थीं घुच्ची

बदन कठमस्त था...

ऐसे आप अधेड़ संत ग़रीबदास पधारे

चमर टोली में...


'अरे भगाओ इस बालक को

होगा यह भारी उत्पाती

जुलुम मिटाएँगे धरती से

इसके साथी और संघाती 


'यह उन सबका लीडर होगा

नाम छ्पेगा अख़बारों में

बड़े-बड़े मिलने आएँगे

लद-लदकर मोटर-कारों में


'खान खोदने वाले सौ-सौ

मज़दूरों के बीच पलेगा

युग की आँचों में फ़ौलादी

साँचे-सा यह वहीं ढलेगा


'इसे भेज दो झरिया-फरिया

माँ भी शिशु के साथ रहेगी

बतला देना, अपना असली

नाम-पता कुछ नहीं कहेगी


'आज भगाओ, अभी भगाओ

तुम लोगों को मोह न घेरे

होशियार, इस शिशु के पीछे

लगा रहे हैं गीदड़ फेरे


'बड़े-बड़े इन भूमिधरों को

यदि इसका कुछ पता चल गया

दीन-हीन छोटे लोगों को

समझो फिर दुर्भाग्य छ्ल गया


'जनबल-धनबल सभी जुटेगा

हथियारों की कमी न होगी

लेकिन अपने लेखे इसको

हर्ष न होगा, गमी न होगी


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