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भर्तृहरि नीतिशतक पर संस्कृत श्लोक

दिक्कालाद्यनवविच्छिन्नानन्तचिन्मात्रमूर्तये। स्वानुभूत्येकमानाय नमः शान्ताय तेजसे।। 1।

दिशा (पूर्वपश्चिमादि) और काल (वर्तमान, भूत, भविष्यादि) से अनवच्छिन्न अर्थात् परमित न किये गये, अनन्त, चैतन्यस्वरूप, स्वानचभूत्यैकगम्य ज्योतिः स्वरूप ब्रह्म को नमस्कार है।।

२. यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता, साऽप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः। अस्मत्कृते च परितप्यति काचिदन्या, धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च।।2।।

जिस स्त्री का मैं अहो-रात्र चिन्तन करता हूँ, वह मुझसे विमुख है। वह भी दूसरे पुरुष को चाहती है। उसका अभीष्ट वह पुरुष भी किसी अन्य स्त्री पर आसक्त है तथा मुझ पर कोई अन्य स्त्री अनुरक्त है। अतः उस स्त्री को , उस पुरुष को, कामदेव को, मुझ पर अनुरक्त स्त्री को, तथा मुझे धिक्कार है।

३. अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः। ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्माऽपि तं नरं न रञ्जयति।।3।।

अज्ञ अर्थात् मुर्ख मनुष्य को सरलता से मनाया जा सकता है। विशेषज्ञ अर्थात् बहुत कुछ जानने वाले को भी प्रसन्न किया जा सकता है या सरलता से मनाया जा सकता है। परन्तु अल्पज्ञ अर्थात् थोडा सा ज्ञान पाकर अपने आपको निपुण समझने वाले व्यक्ति को भगवान ब्रह्मा जी भी प्रसन्न नहीं कर सकते हैं।

४. प्रसह्य मणिमुद्धरेन्मकरवक्त्रदंष्ट्राङ्कुरात्, समुद्रमपि संतरेत् प्रचलदूर्मिमालाऽऽकुलम्। भुजङ्गमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद् धारयेन्, न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत्।।4।।

मनुष्य सहास करके मगरमच्छ के मुंह के अन्दर (दाड़ के अग्रभाग) से मणि निकाल सकता है और चाहे तो समुद्र की उत्तुंग लहरों को भी पार कर सकता है तथा अगर चाहे तो क्रोधित सर्प को भी पुष्पमाला की तरह अपने सिर पर धारण कर सकता है, परन्तु जिद्दी मूर्ख मनुष्य के चित्त को कभी भी शान्त या सन्तुष्ट नहीं कर सकता है।

५. लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयन्, पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दितः। कदाचिदपि पर्यटञ्छशविषाणमासादयेत्, न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत्।।5।।

मनुष्य परिश्रम से कदाचित रेत या बालू से भी तेल निकाल सकता है। अत्यधिक प्यास होने पर मृगमरीचिका से भी चल प्राप्त करके पी सकता है तथा घूमते घूमते खरगोश के सींग भी प्राप्त कर सकता है परन्तु हठ युक्त मूर्ख मनुष्य के चित्त को खुश नहीं कर सकता है।

६. व्यालं बालमृणालतन्तुभिरसौ रोद्धुं समुज्जृम्भते, छेत्तुं वज्रमणिं शिरीषकुसुमप्रान्तेन सन्नह्यते। माधुर्यं मधुबिन्दुना रचयितुं क्षाराम्बुधेरीहते, नेतुं वाञ्छति यः खलान्पथि सतां सूक्तैः सुधास्यन्दिभिः।।6।।

जो मनुष्य सरस और मधुर सरल सूक्तियों से दुष्ट मनुष्यों को सन्मार्ग पर लाना चाहता है, वह कोमल कमलनाल के तन्तुओं से पागल हाथी को बांधने की चेष्टा के तुल्य है तथा मानो वह शिरीषपुष्प के अग्रभाग से हीरे को काटना का प्रयास कर रहा हो और वह समुद्र के खारे पानी को शहद की एक बूंंद से मीठा बनाना चाहता हो। अर्थात् अल्पज्ञ मूर्ख व्यक्ति को किसी भी दशा में नहीं समझाया जा सकता है।

७. स्वायत्तमेकान्तगुणं विधात्रा विनिर्मितं छादनमज्ञातायाः। विशेषतः सर्वविदां समाजे विभूषणं मौनमपण्डितानाम्।।7।।

विधाता ने अज्ञानी मूर्ख मनुष्यों के लिए विद्वानों की सभा में सुशोभित रहने के लिए अज्ञान आवरक तथा अपने अधीन रहने वाला मौन को उत्तम गुण माना है।

८. यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं गज इव मदान्धः समभवं तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः। यदा किञ्चित्किञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतं तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः।।8।।

जब मैं अल्पज्ञ या अज्ञानी था तब हाथी के मद की तरह अभिमान से अन्धा था और खुद को सर्वज्ञ समझता था परन्तु जब मैं विद्वान लोगों के संसर्ग में आया तब मेरा वह गर्व ज्वर की भांति उतर गया और मुझे भासित होने लगा कि मैं मूर्ख हूँ।

९. कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगर्हि जुगुप्सितं निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिषम्। सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्थं विलोक्य न शङ्कते न हि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहल्गुताम्।।9।।

कुत्ता कृमि अर्थात् कीड़ो से भरी हुई, लार युक्त, दुर्गन्धयुक्त, निन्दित, घृणाजनित, एवं मांस रहित मनुष्य की हड्डी को आराम से चूसता रहता है और भगवान इन्द्र से भी लज्जित नहीं होता, ठीक है क्षुद्र प्राणी अपनाई हुई वस्तु की निःसारता नहीं समझता है। १०. शिरः शार्वं स्वर्गात् पतति शिरस्तत् क्षितिधरं महीध्रादुत्तुङ्गादवनिमवनेश्चापि जलधिम्। अधोऽधो गङ्गेयं पदमुपगता स्तोकमथवा विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः।।10।।

जिस प्रकार गंगा स्वर्ग से भगवान शिवशंकर के सिर पर गिरती है, वहाँ से हिमालय के शिखर पर और उन हिमशिखर पर्वत से पृथ्वी पर तथा पृथ्वी से समुद्र में गिरती है। अर्थात् धीरे-धीरे अधोपतन होता है, ठीक उसी तरह विवेक से भ्रष्ट लोगों का पतन होता है।

११. शक्यो वारयितुं जलेन हुतभुक् छत्त्रेण सूर्यातपो नागेन्द्रो निशिताङ्कुशेन समदौ दण्डेन गोगर्दभौ। व्याधिर्भेषजसंग्रैश्च विविधैर्मन्त्रप्रयोगैर्विषं सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम्।।11।।

अग्नि जल से शान्त होती है, सूर्य की धूप छाते से, मतवाला हाथी को तीक्ष्ण अंकुश से वश में किया जा सकता है, बैल और गधे को दण्डे से सही रास्ता दिखाया जा सकता है, बिमारी का निदान औषधियों से और विष का उपशमन अनेक मन्त्रों के प्रयोगों से शान्त किया जा सकता है। अर्थात् शास्त्रों में सब प्रकार की औषधि है परन्तु मुर्ख मनुष्य के लिए कोई औषधि नहीं है।

१२. साहित्य सङ्गीतकलाविहीनः साक्षातः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः। तृणं न खादन्नपि जीवमान- स्तद्भागधेयं परमं पशूनाम्।।12।।

साहित्य, संगीत और कला से अनभिज्ञ या अनजान मनुष्य विना सींग और विना पुच्छ का प्रत्यक्ष पशु है, जो घास या तृण न खाकर भी जीवित रह रहा है। यह पशुओं का परम सौभाग्य है।

१३. येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं गुणो न धर्मः। ते मृर्त्युलोके भुविभारभूता मनुष्यरुपेण मृगाश्चरन्ति।।13।।

जिस मनुष्य के पास न विद्या है, न तप है, न दान है, न ज्ञान है, न सदाचार है और न ही धर्म है, वे मनुष्य इस धरती पर भार के समान हैं अर्थात् निरर्थक जीवन जी रहे हैं और मनुष्य के भेष में वे पशु के समान विचरण कर रहे हैं।

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