
सादा लफ्ज़ों के मोतियों से बनी अहसास की माला है......ग़ज़ल संग्रह “इतवार छोटा पड़ गया” | विजेंद्र
आज का दौर मार्केटिंग का दौर है भले कोई उत्पाद हो या अदब की किसी सिन्फ़ की किताब बिना मार्केटिंग के हथकंडे अपनाए ना तो उपभोक्ता तक कोई वस्तु पहुँचती है ना ही कोई किताब पाठक तक यहाँ तक कि बड़े - बड़े प्रकाशन और नामचीन लेखक भी सोशल मीडिया पर अपनी किताब का इश्तेहार चस्पा किये रहते हैं ! लेखक और पाठक के दरमियान पैदा हो गये इस निर्वात के बीच अगर कोई किताब वो भी ग़ज़ल की किताब बिना किसी मार्केटिंग के नुस्खे इस्तेमाल किये अपने छपने के तीन महीने बाद प्रकाशक के पास ख़त्म हो जाए और छ महीने के भीतर- भीतर किताब का दूसरा संस्करण आ जाए तो इसका सीधा सा अर्थ है कि किताब में ज़रूर कुछ चुम्बकीय सा है जो पाठकों को अपनी जानिब खींच रहा है !
ये शरफ़ प्रताप सोमवंशी साहेब की ग़ज़लों के मजमुए “इतवार छोटा पड़ गया “ को हासिल हुआ जिसे साहित्यिक पुस्तकों के जाने माने प्रकाशन “वाणी प्रकाशन” ने साल 2016 में शाया किया ! वाणी प्रकाशन ने एक श्रंखला निकाली थी “दास्ताँ कहते कहते ”...इसी श्रंखला की एक कड़ी है “इतवार छोटा पड़ गया”
सुधांशु कुमार का तैयार किया आवरण चित्र मनमोहक है ,किताब “वाणी प्रकाशन” घराने की है तो यकीनन छपाई कमाल की ही है ! किताब का नाम “इतवार छोटा पड़ गया “ शायर प्रताप सोमवंशी की एक ग़ज़ल के एक मिसरे का हिस्सा है जो अपने आप में मुकम्मल ग़ज़ल है :----
दर्जनों किस्से कहानी खुद ही चलकर आ गये
उससे मैं जब भी मिला इतवार छोटा पड़ गया
इस ग़ज़ल संग्रह को पढ़ते पढ़ते भी एक इतवार तो क्या हफ्ते ,महीने भी छोटे पड़ जाते है क्योंकि इसकी ग़ज़लें ऐसी हैं जिन्हें बार बार पढने का मन करता है ! किताब की तम्हीद मशहूर शायर अहतराम इस्लाम ने लिखी है और उसके ठीक बाद शायर यानी प्रताप सोमवंशी की लिखी “अपनी बात” कई जगह आँखों को नमी मुहैया करवा जाती है !
इस ग़ज़ल संग्रह में तक़रीबन 100 ग़ज़लें और कुछ फुटकर शेर हैं ,किताब के बीच बीच में मुकेश शाह और शिवानी खेतान के बनाए चित्र भी एक सुन्दर प्रयोग है !
किताब की पहली ग़ज़ल का मतला पढने के बाद किताब पढने की लालसा और बढ़ जाती है !
ये मतला बरसों से एक मुह्वारे की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है अगर किसी शायर का शेर दुनिया एक मुहावरे की तरह बरतने लगे, हर बरस दशहरे पर एक दूसरे को अभिवादन में इस्तेमाल करने लगे और जो शेर एक पोस्टर की शक्ल अख्तियार कर ले तो मुझे ज़ाती तौर पर लगता है कि उस शायर को जनता की अकादमी का सर्वोच्य पुरस्कार मिल गया है और अब तो ये शेर शायर प्रताप सोमवंशी की दस्तरस से भी बाहर निकल चुका है ! आवारा हो चुके इस शेर को प्रताप भाई लाख चाह कर भी पकड़ नहीं पा रहे हैं :----
राम तुम्हारे युग का रावण अच्छा था
दस के दस चेहरे सब बाहर रखता था
प्रताप सोमवंशी एक बड़े सहाफ़ी हैं और उसपे ये सितम कि वे शायर भी हैं ,एक तरफ़ सहाफत (पत्रकारिता) ने उन्हें जो दिखे, जो घटे उसे बिना लाग लपेट के बयान करना सिखाया है तो दूसरी तरफ़ उनके भीतर के शायर ने उनकी लेखनी में संवेदना की सियाही भरी है शायद यही वजह है कि प्रताप भाई सच और झूट के बीच की कशमकश को अपनी शायरी पर हावी नहीं होने देते :----
झूट कहूँ तो दिल तैयार नहीं होता
सच से लेकिन बेड़ा पार नहीं होता
सीधे, सच्चे अच्छे भी हैं लोग बहुत
कैसे लिख दूँ दो दो चार नहीं होता
इसी सिलसिले के दो शेर और देखें ....
झूट पकड़ना कितना मुश्किल होता है
सच भी जब साज़िश में शामिल होता है
नींद बड़ी अच्छी आई कल रात मुझे
सच कहने से ये तो हासिल होता है
प्रताप भाई की शायरी में एक और बात मुझे अल्हेदा नज़र आयी वो ये कि दुनिया जिसे कोसती रहती है उन्हें उसमे भी अच्छाई नज़र आती है , साहित्य में साहूकार , पूंजीपति और गाँव की तुलना में शहर को हमेशा कोसा गया है परन्तु शायरी में हाशिये पे चले गये बिम्बों से भी सकारात्मक बात कहना प्रताप भाई से सीखा जा सकता है :--
शहर वो साहूकार है जिसको कोस रहा है हर कोई
ये सच भी सबको मालूम है दाना – पानी उसके पास
कोसने को लेकर एक और शेर भी कितने सलीक़े से तल्ख़ हक़ीक़त बयाँ कर जाता है :--
अजब है लोग जिसको कोसते हैं
गज़ब है ठीक वैसा बन रहे हैं
प्रताप सोमवंशी के भीतर का शायर रिश्तों की नाज़ुकी को खूब समझता है , रिश्तों के धागे बड़े महीन होते हैं वे नज़र कम आते हैं महसूस ज़ियादा होते हैं ! शायरी के लिए पहली शर्त शेर कहने वाले का मिज़ाज शायराना होना तो दूसरी अहम् शर्त है उसका हस्सास (संवेदनशील ) होना, प्रताप भाई रिश्तों को समझने और उन्हें जीने में अति संवेदन शील हैं तभी तो अंदर तक गहरे उतर जाने वाले ऐसे शेर उन्होंने कहे हैं :--
किसी के साथ रहना और उससे बच के रह लेना
बताओ किस तरह लोग ये रिश्ता निभाते हैं
रिश्तों को जीने का एक और अहसास जिसे तक़रीबन हम सब ने महसूस किया है :--
हिम्मत ताक़त प्यार भरोसा जो है सब इनसे ही है
कुछ नम्बर हैं जिन पर मैंने ज़्यादा फोन लगाया है
रिश्ते की एक ऐसी परिभाषा जिसे हम शब्द नहीं दे पाते सिर्फ़ अनुभूत कर सकते हैं , सिर्फ़ दो मिसरों में उस ख़ास रिश्ते का मनोविज्ञान उकेरने का हुनर भी प्रताप भाई के पास है :-
मुझमे तुझमे बस एक रिश्ता है
तेरे अन्दर भी छटपटाहट है
इसी सिलसिले का ये शेर भी जो सिर्फ़ और सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है :-
नाप तौल कर रिश्ता रखने वाले क्या जानें
कुछ लोगों से मिलकर केवल अच्छा लगता है
दरख्तों की हिमायत में बहुत सी बातें कही जाती है, लिखी जाती हैं , “पेड़ लगाओ –धरा बचाओ” जैसी पंक्तियाँ अनगिनत कवियों / शायरों ने कही हैं परन्तु यहाँ भी प्रताप भाई