
यूँ तो जब भी शायरी का ज़िक्र होता है तो सबसे पहले मिर्ज़ा ग़ालिब का ही नाम ज़ेहन और जुबान पर आता है. लेकिन उर्दू अदब में कुछ ऐसे भी शायर हुए हैं जिनका सम्मान खुद ग़ालिब भी करते हैं. यहाँ हम बात कर रहे हैं ग़ालिब के समकालीन शायर शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ की. कहते हैं की मिर्ज़ा ग़ालिब और ज़ौक़ के दरमियान एक जुबानी जंग थी. लेकिन इस जुबानी जंग के बाद भी दोनों के दिलों में एक दूसरे के लिए कोई खटास नहीं थी.
मोहम्मद इब्राहिम ज़ौक़ (1790-1854) उर्दू अदब के एक मशहूर शायर थे. इनका असली नाम शेख़ इब्राहिम था. ग़ालिब के समकालीन शायरों में ज़ौक़ बहुत ऊपर का दर्जा रखते हैं. महज़ 19 साल की उम्र में ही इन्हें मुग़ल दरबार के शाही शायर के तौर पर चुना गया था. शायरी में ये मुहावरों और शब्दों के बेहतरीन इस्तेमाल के लिए जाने जाते हैं. अपने वक्त के शायर ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ और उस्ताद ‘ज़ौक़’ की अदबी दुश्मनी मशहूर है. उस समय ‘ज़ौक़’ की शोहरत ‘ग़ालिब’ से ज़्यादा थी. शायरी में ‘ज़ौक़’ महान शायर और आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ‘ज़फ़र’ के उस्ताद भी रहे. यूं तो ज़ौक बादशाह के उस्ताद थे, पर उनकी तनख्वाह महज़ चार रुपये महीना थी और मुफ़लिसी उन पर ज़िन्दगी भर हावी रही. बादशाह ज़फर इस हक़ीक़त से बेख़बर थे और ज़ौक़ ने उन्हें बताया भी नहीं . मुद्दतों बाद उनकी तनख्वाह 500 रूपये की गयी थी.
कहते हैं कि ज़ौक़ और ग़ालिब के बीच जो जुबानी जंग थी उसकी वजह थी "जफ़र कि उस्तादी". दर-असल बहादुर शाह जफ़र को शायरी का जूनून जागा और वो अपने लिए एक उम्दा उस्ताद की तलाश करने लगे. ग़ालिब को उम्मीद थी कि बादशाह जफ़र उन्हें ही अपना उस्ताद बनाएंगे लेकिन ज़ौक़ बाजी मार गए. जिसके बाद ग़ालिब और ज़ौक़ के बीच में अदबी जंग शुरू हुई.
ज़ौक़ और ग़ालिब के इस जुबानी जंग को लेकर एक किस्सा बहुत मशहूर है. विलियम डेलरिम्पल ने अपनी कितबा 'द लास्ट मुग़ल' में लिखा है कि " बहादुरशाह जफर के बेटे जवां बख्त की शादी में बहादुरशाह जफर की बीवी जीनत महल ने अपने बेटे की शादी के लिए सेहरा (निकाह के बाद पढ़ी जाने वाली नज्म) लिखने की जिम्मेदारी मिर्जा गालिब को दी. लेकिन बादशाह जफ़र चाहते थे कि सेहरा उस्ताद शेख इब्राहीम ज़ौक लिखें, जो उस वक़्त दरबार के सबसे बड़े शायर थे. और इस तरह तय हुआ कि जवां बख्त का सेहरा ज़ौक और गालिब दोनों लिखेंगे.