
हिंदी साहित्य में यदि हास्य व्यंग्य कविताओं का जिक्र होता है तो सबसे पहले जुबान और जेहन में बाबा नागार्जुन का नाम ही आता है. बाबा नागार्जुन जिनके बेबाक अंदाज ने उन्हें "जनकवि" बना दिया. उनकी कविताएं अति सहज किन्तु गहरा सन्दर्भ समेटे हुए होती है. उन्होंने अपनी रचनाओं से समाज की हर एक बुराई पर तीक्ष्ण प्रहार किया है.
बाबा नागार्जुन (30जून 1911- 5 नवम्बर 1998) हिन्दी और मैथिली के अप्रतिम लेखक और कवि थे. अनेक भाषाओं के ज्ञाता तथा प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकार नागार्जुन ने हिन्दी के अतिरिक्त मैथिली संस्कृत एवं बाङ्ला में मौलिक रचनाएँ भी कीं तथा संस्कृत, मैथिली एवं बांगला से अनुवाद कार्य भी किया. उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
वैद्यनाथ मिश्र से "बाबा नागार्जुन" बनने का सफर - बाबा नागार्जुन का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था लेकिन प्रारम्भ में वे अपनी मातृभाषा मैथिली में ‘यात्री’ नाम से लिखा करते थे. "यात्री" उपनाम उन्होंने स्वयं चुना था .ऐसा कहा जाता है कि बाबा नागार्जुन ने बचपन में राहुल सांकृत्यायन की किताब ‘संयुक्त निकाय’ का अनुवाद पढ़ा था. इसे पढ़कर उन्होंने इस किताब को मूल भाषा पाली में पढ़ना चाहा. जिसके लिए वे श्रीलंका पहुंच गए और एक बौद्धमठ में रहकर पाली सीखने लगे. बदले में वे बौद्ध भिक्षुओं को संस्कृत पढ़ाते थे. यह उनकी घुमक्कड़ी अंदाज का एक उदाहरण है. यही उन्होंने खुद को ‘यात्री’ नाम दिया था. श्रीलंका में ही वे बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए और उन्हें नया नाम मिला – नागार्जुन. उसके बाद वे वैद्यनाथ मिश्र से नागार्जुन बने. उनकी रचनाओं ने लोगो को प्रभावित किया तो लोग उन्हें ‘बाबा’ कह कर बुलाने लगे. और इस तरह से वे "बाबा नागार्जुन" बन गए
बाबा नागार्जुन की लेखनी में समाज के छोटे तपके के आखिरी व्यक्ति की समस्या से लेकर संसद व सरकारी ढुलमुल व्यवस्था का विरोध देखने को मिलता है. यही कारण रहा की लोगों ने उन्हें दिल से पसंद किया और वे जनकवि के रूप में जाने गए.
बाबा नागार्जुन ने कविता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, निबन्ध, बाल-साहित्य -- सभी विधाओं में अपनी कलम चलायी. मैथिली एवं संस्कृत के अतिरिक्त बांग्ला से भी वे जुड़े रहे. बांग्ला भाषा और साहित्य से नागार्जुन का लगाव शुरू से ही रहा. काशी में रहते हुए उन्होंने अपने छात्र जीवन में बांग्ला साहित्य को मूल बांग्ला में पढ़ना शुरू किया. मौलिक रुप से बांग्ला लिखना फरवरी 1978 ई० में शुरू किया और सितंबर 1979 ई० तक लगभग 50 कविताएँ लिखी. कुछ रचनाएँ बँगला की पत्र-पत्रिकाओं में भी छपीं. कुछ हिंदी की लघु पत्रिकाओं में लिप्यंतरण और अनुवाद सहित प्रकाशित हुईं. मौलिक रचना के अतिरिक्त उन्होंने संस्कृत, मैथिली और बांग्ला से अनुवाद कार्य भी किया. कालिदास उनके सर्वाधिक प्रिय कवि थे और 'मेघदूत' प्रिय पुस्तक. मेघदूत का मुक्तछंद में अनुवाद उन्होंने 1953 ई० में किया था. जयदेव के 'गीत गोविंद' का भावानुवाद वे 1948 ई० में ही कर चुके थे. वस्तुतः 1944 और 1954 ई० के बीच नागार्जुन ने अनुवाद का काफी काम किया. बांग्ला उपन्यासकार शरतचंद्र के कई उपन्यासों और कथाओं का हिंदी अनुवाद छपा भी.
बाबा नागार्जुन के काव्य में अब तक की पूरी भारतीय काव्य-परंपरा ही जीवंत रूप में उपस्थित देखी जा सकती है. उनका कवि-व्यक्तित्व कालिदास और विद्यापति जैसे कई कालजयी कवियों के रचना-संसार के गहन अवगाहन, बौद्ध एवं मार्क्सवाद जैसे बहुजनोन्मुख दर्शन के व्यावहारिक अनुगमन तथा सबसे बढ़कर अपने समय और परिवेश की समस्याओं, चिन्ताओं एवं संघर्षों से प्रत्यक्ष जुड़ा़व तथा लोकसंस्कृति एवं लोकहृदय की गहरी पहचान से निर्मित है. प्रस्तुत हैं बाबा नागार्जुन की कुछ कविताएं
(१)
काले-काले ऋतु-रंग
काली-काली घन-घटा
काले-काले गिरि श्रृंग
काली-काली छवि-छटा
काले-काले परिवेश
काली-काली करतूत
काली-काली करतूत
काले-काले परिवेश