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आइये मिलते है वीर रस के कुछ श्रेष्ठ कवियों से व पढ़ते हैं रक्त शिराओं में अग्नि प्रज्वलित कर देने वाली उनकी वीर रस की कविताएं

[Kavishala Labs] हिंदी साहित्य व्यापक और समृद्ध है. साहित्य की विभिन्न शाखाएं समाज को राह दिखाने का कार्य करती हैं. साहित्य की इन विधाओं में काव्य साहित्य का विशेष महत्व है. कविता की विशेषता है कि बड़ी ही सरलता से किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेती है. प्रारम्भ से ही कविता ने मानव मन को संबल देने का कार्य किया है. स्थिति चाहे प्रेम की हो, विरह की हो, वेदना की हो या फिर आनंद की. कविता ने सदैव मानव मन को सम्मोहित किया है. हिंदी कविता न केवल मानव मन को आकर्षित व सम्मोहित करती है बल्कि उसमे नई चेतना और ऊर्जा भरने का कार्य भी करती है. 


जब स्थिति प्रतिकूल हो, निराशा व पराजय की शंका मन में भरी हो तो ऐसे समय में वीर रस की कविताएं न केवल मानव मन को संबल देती हैं बल्कि उसमे नई चेतना जाग्रत कर देती है. आइये मिलते है वीर रस के कुछ श्रेष्ठ कवियों से व पढ़ते हैं रक्त शिराओं में अग्नि प्रज्वलित कर देने वाली उनकी वीर रस की कविताएं.


(१) भूषण (1613 -1705) रीतिकाल के तीन प्रमुख कवियों में से एक हैं. रीति काल में जब अन्य कवि शृंगार रस में रचना कर रहे थे, तब वीर रस में प्रमुखता से रचना कर भूषण ने खुद को सबसे अलग साबित किया. भूषण का वास्तविक नाम घनश्याम था. शिवराज भूषण ग्रंथ के निम्न दोहे के अनुसार 'भूषण' उनकी उपाधि है जो उन्हें चित्रकूट के राज हृदयराम के पुत्र रुद्रशाह ने दी थी -

कुल सुलंकि चित्रकूट-पति साहस सील-समुद्र।

कवि भूषण पदवी दई, हृदय राम सुत रुद्र॥


रीति युग था पर भूषण ने वीर रस में कविता रची. उनके काव्य की मूल संवेदना वीर-प्रशस्ति, जातीय गौरव तथा शौर्य वर्णन है. प्रस्तुत हैं उनकी वीर रस की कविताएं-


[१] 

साजि चतुरंग सैन अंग में उमंग धरि

सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है

भूषण भनत नाद बिहद नगारन के

नदी-नद मद गैबरन के रलत है

ऐल-फैल खैल-भैल खलक में गैल गैल

गजन की ठैल –पैल सैल उसलत है

तारा सो तरनि धूरि-धारा में लगत जिमि

थारा पर पारा पारावार यों हलत है


[२]

चकित चकत्ता चौंकि चौंकि उठै बार बार,

      दिल्ली दहसति चितै चाहि करषति है.

बिलखि बदन बिलखत बिजैपुर पति,

      फिरत फिरंगिन की नारी फरकति है.

थर थर काँपत क़ुतुब साहि गोलकुंडा,

      हहरि हवस भूप भीर भरकति है.

राजा सिवराज के नगारन की धाक सुनि,

      केते बादसाहन की छाती धरकति है.


(२) रामधारी सिंह 'दिनकर' ' (23 सितम्‍बर 1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे. वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं. एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है. प्रस्तुत हैं उनकी कविताएं-

 

[१]

कलम, आज उनकी जय बोल

जला अस्थियाँ बारी-बारी

चिटकाई जिनमें चिंगारी,

जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर

लिए बिना गर्दन का मोल

कलम, आज उनकी जय बोल.


जो अगणित लघु दीप हमारे

तूफानों में एक किनारे,

जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन

माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल

कलम, आज उनकी जय बोल.


पीकर जिनकी लाल शिखाएँ

उगल रही सौ लपट दिशाएं,

जिनके सिंहनाद से सहमी

धरती रही अभी तक डोल

कलम, आज उनकी जय बोल.


अंधा चकाचौंध का मारा

क्या जाने इतिहास बेचारा,

साखी हैं उनकी महिमा के

सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल

कलम, आज उनकी जय बोल.


[२]

समर शेष है....

ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,

किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?

किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,

भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?


कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?

तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान.


फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले !

ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!

सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,

दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है .


मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,

ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार .


वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है

जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है

देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है

माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है


पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज

सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?


अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?

तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?

सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?

उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में


समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा

और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा


समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा

जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा

धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं

गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं


कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे

अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे


समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो

शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो

पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे

समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे


समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर

खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर


समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं

गांधी का पी रुधिर जवा

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