
साहित्य जगत के सर्वश्रेष्ठ ग़ज़ल सम्राट दुष्यंत कुमार जी की जयंती पर उनको नमन
रहनुमाओं की अदाओं पर फिदा है दुनिया,
इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारों,
कैसे आकाश में सुराख हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।
-दुष्यंत कुमार
हिन्दी साहित्य में अपनी कविताओं और ग़ज़लों से ख्याति प्राप्त करने वाले महान कवि दुष्यंत कुमार का जन्म आज ही के दिन, 1 सितम्बर 1933 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर में हुआ था |हालांकि उनकी जन्म तिथि को लेकर एक संशय बना रहा है क्यूंकि कवि की पुस्तकों में उनकी जन्म तिथि 1 सितम्बर 1933 दर्ज है,परन्तु उनके मर्मज्ञ विहाय बहादुर सिंह के अनुसार कवि की वास्तविक जन्मतिथि 27 सितम्बर 1931 है। इलाहाबाद से ही उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ करने वाले दुष्यंत कुमार हिंदी गजलकार के रूप में बहुत लोकप्रियता हासिल की थी जो बहुत कम ही लोगो को प्राप्त होती है | उन्होंने हिंदी साहित्य में काव्य ,गजल ,उपन्यास ,गीत और नाटक आदि अनेक विधाओं में लिखा जो आज भी पढ़ी जाती हैं | कहा जाता है जिस समय दुष्यंत कुमार ने साहित्य मे अपना पहला कदम रहा था उस समय दो प्रसिद्ध शायरों क़ैफ़ भोपाली और ताज भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया में बहुत नाम था।
मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आप को सुनाता हूँ
एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ
हर तरफ़ एतराज़ होता है
मैं अगर रौशनी में आता हूँ
एक बाज़ू उखड़ गया जब से
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ
मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूँ
कौन ये फ़ासला निभाएगा
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ
- दुष्यंत कुमार
शुरूआती जीवन
बता दें दुष्यंत कुमार का पूरा नाम दुष्यंत कुमार त्यागी था ।उन्होंने अपनी शुरूआती शिक्षा नहटौर, जनपद बिंजौर से प्राप्त की थी । उन्होंने एन.एस.एम इंटरकॉलेज से चंदौसी से अपनी माध्यमिक शिक्षा पूरी की और आगे की पढ़ाई के लिए 1954 इलहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया जहाँ से उन्होंने एम.ए. की डीग्री हासिल की। अपनी कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही उनका विवाह कर दिया गया था। वे मुरादाबाद से बी.ऐड करने के बाद 1958 में दिल्ली आ गए।
मध्य प्रदेश के संस्कृत विभाग के अंतर्गत भाषा विभाग में कार्यरत रहे । आपातकाल के दौरान हुए घटनाओं से उनका कविमन आक्रोशित हो उठा जिसकी अभीव्यक्ति कुछ कालजयी गजलों के रूप में हुई ,जो उनके गजल संग्रह "साये की धुप" का हिस्सा बनी।
हालांकि उनके लिए ये उतना सहज नहीं था क्योंकि सरकारी विभाग में कार्यगत होते हुए सरकार विरोधी रचनाओं को लिखने के कारण उन्हें सरकार का कोपभाजन भी बनना पड़ा था। बता दें 1975 में उनका प्रसिद्ध ग़ज़ल संग्रह साये की धुप प्रकाशित हुआ था। यह इतना प्रसिद्ध हुआ था की इसके कई ग़ज़ल तो मुहावरों के रूप में लोगो द्वारा बोले जाने लगे।
"साये में धूप" संग्रह का एक ग़ज़ल:
कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए
न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए
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