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वीर रस : वीरता की अभिव्यक्ति के भाव को व्यक्त करने वाला रस!

वीर रस की परिभाषा :- वीर रस का प्रयोग प्रसंग अथवा काव्य में वीरता युक्त भाव प्रकट करने के उद्देश्य से किया जाता है। वीर रस शरीर में उत्साह का संचार करते हुए गर्व की अनुभूति कराने में सक्षम है। इस रस के माध्यम से युद्ध तथा रण पराक्रम तथा शौर्य का वर्णन अपेक्षित है। विभाव ,अनुभाव तथा संचारी भाव के माध्यम से परिष्कृत होकर जब वह आस्वाद रूप में प्रकट होता है वहां वीर रस की प्रतीति होती है।

वर्षों से इसके माध्यम से योद्धा अथवा पराक्रमी व्यक्ति का उत्साहवर्धन किया जाता है। उस व्यक्ति विशेष के विशेषताओं को बताते हुए स्तुति गायन किया जाता है।सहृदय के हृदय में स्थायी भाव, उत्साह रूप में विद्यमान होता है। इस रस का प्रयोग साहित्य में उत्साहवर्धन के लिए किया जाता है।

निम्न लिखित कुछ कविताएं वीर रस के उधारण है :-

(i) "खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी!"

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,

बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,

गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,

दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,

लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,

नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,

बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।

वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,

देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,

नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,

सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।

महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।       

— सुभद्रा कुमारी चौहान

व्याख्या : प्रथम पद में लेखिका ने झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के साहस और बलिदान का वर्णन करते हुए कहा है कि किस तरह उन्होंने गुलाम भारत को आज़ाद करवाने के लिए हर भारतीय के मन में चिंगारी लगा दी थी। रानी लक्ष्मी बाई के साहस से हर भारतवासी जोश से भर उठा और सबके मन में अंग्रेजों को दूर भगाने की भावना पैदा होने लगी। 1857 में उन्होंने जो तलवार उठाई थी यानी अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ी थी, उससे सभी ने अपनी आज़ादी की कीमत पहचानी थी।झांसी की रानी कविता के इस पद में लेखिका ने कहा है कि कानपुर के नाना साहब ने बचपन में ही रानी लक्ष्मीबाई की अद्भुत प्रतिभा से प्रभावित होकर, उन्हें अपनी मुंह-बोली बहन बना लिया था। नाना साहब उन्हें युद्ध विद्या की शिक्षा भी दिया करते थे। लक्ष्मीबाई बचपन से ही बाकी लड़कियों से अलग थीं। उन्हें गुड्डे-गुड़ियों के बजाय तलवार, कृपाण, तीर और बरछी चलाना अच्छा लगता था।झांसी की रानी कविता के इस पद में कवयित्री ने बताया है कि लक्ष्मीबाई व्यूह-रचना, तलवारबाज़ी, लड़ाई का अभ्यास तथा दुर्ग तोड़ना इन सब खेलों में माहिर थीं। मराठाओं की कुलदेवी भवानी उनकी भी पूजनीय थीं। वे वीर होने के साथ-साथ धार्मिक भी थीं।

(ii)"झुक नहीं सकते"

टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते

सत्य का संघर्ष सत्ता से

न्याय लड़ता निरंकुशता से

अंधेरे ने दी चुनौती है

किरण अंतिम अस्त होती है

दीप निष्ठा का लिये निष्कंप

वज्र टूटे या उठे भूकंप

यह बराबर का नहीं है युद्ध

हम निहत्थे, शत्रु है सन्नद्ध

हर तरह के शस्त्र से है सज्ज

और पशुबल हो उठा निर्लज्ज

किन्तु फिर भी जूझने का प्रण

अंगद ने बढ़ाया चरण

प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार

समर्पण की माँग अस्वीकार

दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते

टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते

— अटल बिहारी बाजपाई

व्याख्या : हम टूट जाएंगे परंतु, झुकेंगे नहीं। यहां सच की लड़ाई सत्ता से है। अंधेरे ने अंतिम किरण को चुनौती दे दी है। हमारी निष्ठा का दीपक निष्ठा का दीपक ने निष्कम्प है। पहाड़ टूट जाए, भूकंप आ जाए परंतु, यह बराबर का युद्ध नहीं है। इस युद्ध में हम निहत्थे हैं। दुश्मन पूरे हथियारों के साथ खड़ा है। फिर भी इस से जूझने का प्रण लेकर अंगद ने कदम बढ़ा दिया है। प्रण लेकर लड़ेंगे, समर्पण करना हमें स्वीकार नहीं है। दाव पर सब कुछ लग गया है इसलिए हम रुक सकते नहीं। इसलिए हम टूट सकते हैं, मगर हम झुक सकते नहीं।

(iii) "चेतक"

रण–बीच चौकड़ी भर–भरकर

चेतक बन गया निराला था।

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