
रस ( श्रृंगार ) : सौंदर्य की अभिव्यक्ति के भाव को व्यक्त करने वाला रस!
हिन्दी रस क्या होते है ?
रस - रस का शाब्दिक अर्थ है - "आनंद "। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसे रस कहा जाता है। रस को काव्य की "आत्मा " माना जाता है। प्राचीन भारतीय वर्ष में रस का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान था। रस संचार के बिना कोई भी प्रयोग सफल नहीं होता था। रस जिस तरह से काव्य शैली में प्रयोग होता है, उसी तरह नृत्य शैली में इन रसों के माध्यम से नृत्य के द्वारा अपने हाव-भाव से अपने विचार व्यक्त किया जाता है। रस के कारण कविता के पठन, श्रवण और नाटक के अभिनय से देखने वाले लोगों को आनंद मिलता है।
रस की क्या परिभाषा है ?
'भरत मुनि ' ने सबसे पहले रस को परिभाषित किया था। उन्होंने अपने 'नाट्यशास्त्र ' में रास-रस के 8 प्रकारों का वर्णन किया जो, एक भाग मूलक कलात्मक अनुभूति है। रास का केंद्र 'रंगमंच ' है। कोई भी भाव हो वह रस नहीं होता बल्कि, हर तरह का भाव रस का आधार होता है।
वही 'डॉक्टर विश्वंभर ' नाथ के उनके अनुसार "रस की परिभाषा " भावों के छंदात्मक समन्वय का नाम है।
तो, आचार्य "रामचंद्र शुक्ल " रस की परिभाषा में कहते हैं कि, जिस तरह आत्मा की मुक्त अवस्था 'ज्ञान दशा ' कहलाती है। उसी तरह 'हृदय की मुक्त ' अवस्था 'रस दशा ' कहलाती है।
रस के कई प्रकार होते हैं, जिनमें से पहला प्रकार "श्रृंगार रस " होता है।
श्रृंगार रस :-
आचार्य भोजराज ने ‘शृंगार’ को ‘रसराज’ कहा है। शृंगार रस का आधार स्त्री-पुरुष का पारस्परिक आकर्षण है, जिसे काव्यशास्त्र में रति स्थायी भाव कहते हैं। जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रति स्थायी भाव आस्वाद्य हो जाता है तो उसे श्रृंगार रस कहते हैं। शृंगार रस में सुखद और दुःखद दोनों प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं; इसी आधार पर इसके दो भेद किए गए हैं - संयोग शृंगार और वियोग श्रृंगार।
(i) संयोग श्रृंगार
जहाँ नायक-नायिका के संयोग या मिलन का वर्णन होता है, वहाँ संयोग शृंगार होता है। उदाहरण-
“चितवत चकित चहूँ दिसि सीता।
कहँ गए नृप किसोर मन चीता।।
लता ओर तब सखिन्ह लखाए।
श्यामल गौर किसोर सुहाए।।
थके नयन रघुपति छबि देखे।
पलकन्हि हूँ परिहरी निमेषे।।
अधिक सनेह देह भई भोरी।
सरद ससिहिं जनु चितव चकोरी।।
लोचन मग रामहिं उर आनी।
दीन्हें पलक कपाट सयानी।।”
- कालिदास
व्याख्या : यहाँ सीता का राम के प्रति जो प्रेम भाव है वही रति स्थायी भाव है राम और सीता आलम्बन विभाव, लतादि उद्दीपन विभाव, देखना, देह का भारी होना आदि अनुभाव तथा हर्ष, उत्सुकता आदि संचारी भाव हैं, अत: यहाँ पूर्ण संयोग शृंगार रस है
(ii) वियोग या विप्रलम्भ श्रृंगार
जहाँ वियोग की अवस्था में नायक-नायिका के प्रेम का वर्णन होता है, वहाँ वियोग या विप्रलम्भ शृंगार होता है। उदाहरण-
“कहेउ राम वियोग तब सीता।
मो कहँ सकल भए विपरीता।।
नूतन किसलय मनहुँ कृसानू।
काल-निसा-सम निसि ससि भानू।।
कुवलय विपिन कुंत बन सरिसा।
वारिद तपत तेल जनु बरिसा।।
कहेऊ ते कछु दुःख घटि होई।
काहि कहौं यह जान न कोई।।”
- कालिदास
व्याख्या : यहाँ राम का सीता के प्रति जो प्रेम भाव है वह रति स्थायी भाव, राम आश्रय, सीता आलम्बन, प्राकृतिक दृश्य उद्दीपन विभाव, कम्प, पुलक और अश्रु अनुभाव तथा विषाद, ग्लानि, चिन्ता, दीनता आदि संचारी भाव हैं, अत: यहाँ वियोग शृंगार रस है।
निम्न लिखित कुछ और कविताएं श्रृंगार रस के ऊपर ही आधारित है :-
(iii) "पर आँखें नहीं भरीं"
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।
सीमित उर में चिर-असीम