
करुण रस — किसी अपने के विनाश, धीर्घकालीन वियोग, द्रव्य नाश या प्रेमी से सदैव के लिए बिछड़ जाने या दूर चले जाने से जो दुख या वेदना उत्पन्न होती है, उसे करुण रस कहते हैं। इसका स्थाई भाव "शोक " है करुण रस में शोक का वर्णन होता है।
या हम दूसरे शब्दों में कहें तो करुण रस वह होता है, जब किसी प्रिय वस्तु या इष्ट वस्तु का नाश होता है, तो उससे जो क्षोभ होता है, उसे शोक कहते हैं। यही शोक का भाव जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से रस रूप में परिणित होता है। तो उसे करुण रस कहते हैं। यद्यपि, 'वियोग श्रृंगार ' रस में भी दुख का अनुभव होता है लेकिन वहां पर दूर जाने वाले से पुनः मिलन की आशा बंधी रहती है। पर करुण रस में बिछोह, पूरी तरह से बिछड़ जाने पर जो शोक उत्पन्न होता है, वही करुण रस होता है।
करुण रस की परिभाषा :- जहां पर पुनः मिलने की आशा समाप्त हो जाती है, करुण रस कहलाता है। जिसमें निश्वास, छाती पीटना, रोना, भूमि पर गिरना, आदि का भाव व्यक्त होता है।
— कबीर धनंजय के अनुसार करुण रस :
"इष्ट नाशादनिष्टप्तो शोकात्मा करुणोंस्नुतम"
— चिंतामणि के अनुसार करुण रस :
"इष्टनाश की अनिष्ट की, आगम ते जो होई।
दुख सोक थाई जहां, भाव करुण सोई।"
— देव के अनुसार करुण रस :
" विंठे इठ अनीठ सुनी, मन में उपजत सोग।
आसा छूटे चार विधि, करुण बखानत लोग।"
निम्न लिखित कुछ कविताएं करुण रस पे आधारित है :-
(i) "मुझे फूल मत मारो"
मुझे फूल मत मारो,
मैं अबला बाला वियोगिनी, कुछ तो दया विचारो।
होकर मधु के मीत मदन, पटु, तुम कटु गरल न गारो,
मुझे विकलता, तुम्हें विफलता, ठहरो, श्रम परिहारो।
नही भोगनी यह मैं कोई, जो तुम जाल पसारो,
बल हो तो सिन्दूर-बिन्दु यह--यह हरनेत्र निहारो!
रूप-दर्प कंदर्प, तुम्हें तो मेरे पति पर वारो,
लो, यह मेरी चरण-धूलि उस रति के सिर पर धारो!
— मैथिलीशरण गुप्त
व्याख्या : मैं अबला हूं, वियोगिनी हूं। मुझे फूल भी मत मारो। मुझे फूल की चोट भी नहीं झेली जाती। कुछ तो दया करो। मुझ में व्याकुलता है, तुम्हें विफलता है। जरा ठहरो मैं कोई भोगिनी नहीं हूं, जो मुझ पर जाल रचते हो। अगर बल है तो सिंदूर, बिंदी, वह मेरे नेत्रों को निहारो। रूप-दर्पण सब तुम्हारा, तुम्हें मैंने पति रूप में माना। मुझे रति रूप में स्वीकारो।
(ii) "जो तुम आ जाते एक बार"
कितनी करूणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग
आँसू लेते वे पथ पखार
जो तुम आ जाते एक बार
हँस उठते पल में आर्द्र नयन
धुल जाता होठों से विषाद
छा जाता जीवन में बसंत
लुट जाता चिर संचित विराग
आँखें देतीं सर्वस्व वार
जो तुम आ जाते एक बार
— महादेवी वर्मा
व्याख्या : मेरी कितनी करुणा संदेश फूल बनकर तुम्हारे रास्ते पर बिछ जाते हैं। मेरे प्राणों का तार-तार अनुराग व उन्माद भरा राग गाता। मेरे आंसू रास्ता धो देते तो, जो तुम एक बार आ जाते। मेरे नयन हंस उठते। होठों से दुख धूल जाता। जीवन में बसंत छा जाता। खत्म हो जाता है यह लंबा विराग का समय। आंखें मेरी तुम पर सब कुछ वार देती, अगर तुम आ जाते।
(iii) "और का और मेरा दिन "
दिन है,
किसी और का।
सोना का हिरन,
मेरा है।
भैंस की खाल का
मरा दिन।
यही कहता है
वृद्ध रामदहिन
यही कहती है
उसकी धरैतिन,
जब से
चल बसा
उनका लाड़ला।
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