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राणा सांगा :- अस्सी घाव लगे थे तन पे, फिर भी व्यथा नहीं थी मन में

मेवाड़ योद्धाओं की भूमि है, यहाँ कई शूरवीरों ने जन्म लिया और अपने कर्तव्य का प्रवाह किया । उन्ही उत्कृष्ट मणियों में से एक थे राणा सांगा । पूरा नाम महाराणा संग्राम सिंह । वैसे तो मेवाड़ के हर राणा की तरह इनका पूरा जीवन भी युद्ध के इर्द-गिर्द ही बीता लेकिन इनकी कहानी थोड़ी अलग है । एक हाथ , एक आँख, और एक पैर के पूर्णतः क्षतिग्रस्त होने के बावजूद इन्होंने ज़िन्दगी से हार नही मानी और कई युद्ध लज़रा सोचिए कैसा दृश्य रहा होगा जब वो शूरवीर अपने शरीर मे 80 घाव होने के बावजूद, एक आँख, एक हाथ और एक पैर पूर्णतः क्षतिग्रस्त होने के बावजूद जब वो लड़ने जाता था ।कोई योद्धा, कोई दुश्मन इन्हें मार न सका पर जब कुछ अपने ही विश्वासघात करे तो कोई क्या कर सकता है । आईये जानते है ऐसे अजयी मेवाड़ी योद्धा के बारे में, खानवा के युद्ध के बारे में एवं उनकी मृत्यु के पीछे के तथ्यों के बारे में।


राणा रायमल के बाद सन् 1509 में राणा सांगा मेवाड़ के उत्तराधिकारी बने। इनका शासनकाल 1509- 1527 तक रहा । इन्होंने दिल्ली, गुजरात, व मालवा मुगल बादशाहों के आक्रमणों से अपने राज्य की बहादुरी से ऱक्षा की। उस समय के वह सबसे शक्तिशाली राजा थे । इनके शासनकाल में मेवाड़ अपनी समृद्धि की सर्वोच्च ऊँचाई पर था। एक आदर्श राजा की तरह इन्होंने अपने राज्य की रक्षा तथा उन्नति की। राणा सांगा अदम्य साहसी थे । इन्होंने सुलतान मोहम्मद शासक माण्डु को युद्ध में हराने व बन्दी बनाने के बाद उन्हें उनका राज्य पुनः उदारता के साथ सौंप दिया, यह उनकी बहादुरी को दर्शाता है। बचपन से लगाकर मृत्यु तक इनका जीवन युद्धों में बीता। इतिहास में वर्णित है कि महाराणा संग्राम सिंह की तलवार का वजन 20 किलो था ।

खानवा के युद्ध मे राणा सांगा के चेहरे पर एक तीर आकर लगा जिससे राणा मूर्छित हो गए ,परिस्थिति को समझते हुए उनके किसी विश्वास पात्र ने उन्हें मूर्छित अवस्था मे रण से दूर भिजवा दिया एवं खुद उनका मुकुट पहनकर युद्ध किया, युद्ध मे उसे भी वीरगति मिली एवं राणा की सेना भी युद्ध हार गई । युद्ध जीतने की बाद बाबर ने मेवाड़ी सेना के कटे सरो की मीनार बनवाई थी । जब राणा को होश आने के बाद यह बात पता चली तो वो बहुत क्रोधित हुए उन्होंने कहा मैं हारकर चित्तोड़ वापस नही जाऊंगा उन्होंने अपनी बची-कुची सेना को एकत्रित किया और फिर से आक्रमण करने की योजना बनाने लगे इसी बीच उनके किसी विश्वास पात्र ने उनके भोजन में विष मिला दिया ,जिससे उनकी मृत्यु हो गई खानवा का युद्ध –

बाबर सम्पूर्ण भारत को रौंदना चाहता था जबकि राणा सांगा तुर्क-अफगान राज्य के खण्डहरों के अवशेष पर एक हिन्दू राज्य की स्थापना करना चाहता थे, परिणामस्वरूप दोनों सेनाओं के मध्य 17 मार्च, 1527 ई. को खानवा में युद्ध आरम्भ हुआ। इस युद्ध में राणा सांगा का साथ महमूद लोदी दे रहे थे। युद्ध में राणा के संयुक्त मोर्चे की खबर से बाबर के सौनिकों का मनोबल गिरने लगा। बाबर अपने सैनिकों के उत्साह को बढ़ाने के लिए शराब पीने और बेचने पर प्रतिबन्ध की घोषणा कर शराब के सभी पात्रों को तुड़वा कर शराब न पीने की कसम ली, उसने मुसलमानों से ‘तमगा कर’ न लेने की घोषणा की। तमगा एक प्रकार का व्यापारिक कर था जिसे राज्य द्वारा लगाया जाता था। इस तरह खानवा के युद्ध में भी पानीपत युद्ध की रणनीति का उपयोग करते हुए बाबर ने सांगा के विरुद्ध सफलता प्राप्त की। युद्ध क्षेत्र में राणा सांगा घायल हुए, पर किसी तरह अपने सहयोगियों द्वारा बचा लिए गये। कालान्तर में अपने किसी सामन्त द्वारा विष दिये जाने के कारण राणा सांगा की मृत्यु हो गई। खानवा के युद्ध को जीतने के बाद बाबर ने ‘ग़ाजी’ की उपाधि धरण की।

मीरा बाई से सम्बंध –

महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र का नाम भोजराज था, जिनका विवाह मेड़ता के राव वीरमदेव के छोटे भाई रतनसिंह की पुत्री मीराबाई के साथ हुआ था। मीराबाई मेड़ता के राव दूदा के चतुर्थ पुत्र रतनसिंह की इकलौती पुत्री थीबाल्यावस्था में ही उसकी माँ का देहांत हो जाने से मीराबाई को राव दूदा ने अपने पास बुला लिया और वही उसका लालन-पा

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