
गंभीर विषय पर भी सहज व सरल शब्दों में कविता की रचना करना भवानी प्रसाद मिश्र जी की विशेषता रही है. समाज के अंतिम आदमी की बात को उन्होंने प्रमुखता से उठाया. उन्होंने ब्रिटिश शासन व आपात काल की वीभत्सता को देखा व अपने अनुभवों को कविता के माध्यम से साझा किया. हर स्थिति में सकारत्मकता खोज लेना, समस्या के साथ समस्या के समाधान पर मंथन करना उनकी प्राथमिकता रही है.
भवानी प्रसाद मिश्र (जन्म: 29 मार्च 1914 - मृत्यु: 20 फ़रवरी 1985) हिन्दी के प्रसिद्ध कवि तथा गांधीवादी विचारक थे. वह 'दूसरा सप्तक' के प्रथम कवि हैं. गांंधी-दर्शन का प्रभाव उनकी कविताओं में दृष्टिगोचर होता है. उनका प्रथम संग्रह 'गीत-फ़रोश' अपनी नई शैली, नई उद्भावनाओं और नये पाठ-प्रवाह के कारण अत्यंत लोकप्रिय हुआ. प्यार से लोग उन्हें भवानी भाई कहकर सम्बोधित किया करते थे. विसम परिस्थितियों पर भी उन्होंने स्वयं को कभी भी निराशा के गर्त में डूबने नहीं दिया. जैसे सात-सात बार मौत से वे लड़े वैसे ही आजादी के पहले गुलामी से लड़े और आजादी के बाद तानाशाही से भी लड़े. आपातकाल के दौरान नियम पूर्वक सुबह-दोपहर-शाम तीनों वेलाओं में उन्होंने कवितायें लिखी थीं जो बाद में त्रिकाल सन्ध्या नामक पुस्तक में प्रकाशित भी हुईं.
भवानी प्रसाद मिश्र कविता को अपना दायित्व व धर्म मानते थे. उनकी कविताओं में अति सहज शब्द किन्तु गूढ़ अर्थ समाहित रहता था. कविता की भाषा की सहजता के सन्दर्भ उन्होंने लिखा -
जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हम से बड़ा तू दिख।
भवानी प्रसाद मिश्र की कई कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा आभास होता है कि मानो कवि पाठक से बात कर रहा हो. वे गूढ़ बातों को भी बहुत ही आसानी और सहजता के साथ अपनी कविताओं में पिरोते थे. नई कविताओं में भी उनका योगदान उल्लेखनीय है . उनका सादगी भरा शिल्प अब भी नये कवियों के लिए चुनौती और प्रेरणास्रोत है. वे जनता की बात को जनता की भाषा में ही कहते थे. उनकी कविताएँ परिवर्तन और सुधार की अभिव्यक्ति हैं.
भवानी प्रसाद मिश्र को 1972 में उनकी रचना "बुनी हुई रस्सी" पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. 1981-82 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा साहित्यकार सम्मान से नवाजा गया. और 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन के शिखर सम्मान से अलंकृत किया गया. भवानी प्रसाद मिश्र सही मायने में जनता के कवि थे. वे जनता की बात जनभाषा में करते थे. हिंदी साहित्य में उनका योगदान अतुलनीय है. उनकी रचनाएं नए कवियों के लिए प्रेरणा श्रोत है. प्रस्तुत है उनकी कुछ चुनिंदा कविताएं-
[१]
जाहिल मेरे बाने
मैं असभ्य हूं क्योंकि खुले नंगे पांवों चलता हूं
मैं असभ्य हूं क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूं
मैं असभ्य हूं क्योंकि चीरकर धरती धान उगाता हूं
मैं असभ्य हूं क्योंकि ढोल पर बहुत ज़ोर से गाता हूं
आप सभ्य हैं क्योंकि हवा में उड़ जाते हैं ऊपर
आप सभ्य हैं क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर
आप सभ्य हैं क्योंकि धान से भरी आपकी कोठी
आप सभ्य हैं क्योंकि ज़ोर से पढ़ पाते हैं पोथी
आप सभ्य हैं क्योंकि आपके कपड़े स्वयं बने हैं
आप सभ्य हैं क्योंकि जबड़े ख़ून सने हैं
आप बड़े चिंतित हैं मेरे पिछड़ेपन के मारे
आप सोचते हैं कि सीखता यह भी ढंग हमारे
मैं उतारना नहीं चाहता जाहिल अपने बाने
धोती-कुरता बहुत ज़ोर से लिपटाए हूं याने!
[२]
कहीं नहीं बचे
हरे वृक्ष
न ठीक सागर बचे हैं
न ठीक नदियाँ
पहाड़ उदास हैं
और झरने लगभग चुप
आँखों में
घिरता है अँधेरा घुप
दिन दहाड़े यों
जैसे बदल गई हो
तलघर में
दुनिया
कहीं नहीं बचे
ठीक हरे वृक्ष
कहीं नहीं बचा
ठीक चमकता सूरज
चांदनी उछालता
चांद
स्निग्धता बखेरते
तारे
काहे के सहारे खड़े
कभी की
उत्साहवन्त सदियाँ
इसीलिए चली
जा रही हैं वे
सिर झुकाये
हरेपन से हीन
सूखेपन की ओर
पंछियों के
आसमान में
चक्कर काटते दल
नजर नहीं आते
क्योंकि
बनाते थे
वे जिन पर घोंसले
वे वृक्ष
कट चुके हैं
क्या जाने
अधूरे और बंजर हम
अब और
किस बात के लिए रुके हैं
ऊबते क्यों नहीं हैं
इस तरंगहीनता
और सूखेपन से
उठते क्यों नहीं हैं यों
कि भर दें फिर से
धरती को
ठीक निर्झरों
नदियों पहाड़ों
वन से!
[३]
धरती पर तारे...
गुस्से के मारे
सारे के सारे
आसमान के तारे
टूट पड़े धरती के ऊपर
झर-झर-झर-झर अगर
तो बतलाओ क्या होगा?
धरती पर आकाश बिछेगा
किरणों से हर कदम सिंचेगा
चंदा तक चढ़ने का
मतलब नहीं बचेगा
रूस बढ़ा या अमरीका
बढ़ने का मतलब नहीं बचेगा
मगर एक मुश्किल आऐगी
कब जाएगी रात और
दिन कब आएगा?
कब मुर्गा बोलेगा
कब सूरज आएगा
कब बाज़ार भरेगा
कब हम जाएँगे सोने
कब जाएँगे लोग,
बढ़ेंगे कब किसान बोने
कब मां हमें उठाएगी
मूंह हाथ धुलेगा
जल्दी जल्दी भागेंगे हम यों कि
अभी स्क