
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
[Kavishala Labs] हिंदी साहित्य में भारतेन्दु हरिश्चंद्र का योगदान अतुलनीय व अद्वितीय है. उन्होंने न केवल हिंदी खड़ी बोली का मार्ग प्रशस्त किया बल्कि अपनी कालजयी रचनाओं से हिंदी साहित्य को भी समृद्ध किया. भारतेन्दु हरिचन्द्र जी का रचनाक्षेत्र विस्तृत था. उन्होंने कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास , यात्रा वृत्तान्त , आत्मकथा, व निबंध आदि अन्य साहित्यिक विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई. हिंदी में नाटक लेखन की शुरुआत करने का श्रेय भारतेन्दु हरिश्चंद्र को ही दिया जाता है.
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (9 सितंबर 1850-6 जनवरी 1885) आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं. उन्हें हिन्दी साहित्य में आधुनिकता का पहला रचनाकार माना जाता है. उनका मूल नाम 'हरिश्चन्द्र' था, 'भारतेन्दु' उनकी उपाधि थी. भारतेन्दु जी का कार्यकाल युग की सन्धि पर खड़ा है. उन्होंने रीतिकाल की विकृत सामन्ती संस्कृति की पोषक वृत्तियों को छोड़कर स्वस्थ परम्परा की भूमि अपनाई और नव सृजन किया. हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है. भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में प्रसिद्ध भारतेन्दु जी ने देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण का चित्रण को ही अपने साहित्य का मूल उद्देश्य बनाया. हिन्दी को राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में उन्होंने अपनी प्रतिभा का उपयोग किया.
हिंदी साहित्य में भारतेन्दु जी के वृहत साहित्यिक योगदान के कारण ही उनके रचना काल को भारतेन्दु युग के नाम से जाना जाता है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भारतेन्दु जी के लिए कहा था कि " भारतेन्दु अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा के बल से एक ओर तो पद्माकर, द्विजदेव की परम्परा में दिखाई पड़ते थे, तो दूसरी ओर बंग देश के माइकेल और हेमचन्द्र की श्रेणी में. प्राचीन और नवीन का सुन्दर सामंजस्य भारतेन्दु की कला का विशेष माधुर्य है."
भारतेन्दु जी में काव्य प्रतिभा बचपन से ही थी. कहा जाता है कि उन्होंने पांच वर्ष की अवस्था में ही निम्नलिखित दोहा बनाकर अपने पिता को सुनाया था,-
लै ब्योढ़ा ठाढ़े भए श्री अनिरुद्ध सुजान।
बाणासुर की सेन को हनन लगे भगवान॥
पंद्रह वर्ष की अवस्था से ही भारतेन्दु जी ने साहित्य सृजन प्रारम्भ कर दिया था. अठारह वर्ष की अवस्था में उन्होंने 'कविवचनसुधा' नामक पत्रिका निकाली, जिसमें उस समय के बड़े-बड़े विद्वानों की रचनाएं छपती थीं. वे बीस वर्ष की अवस्था में ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट बनाए गए और आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक के रूप मे प्रतिष्ठित हुए. उन्होंने 1868 में 'कविवचनसुधा', 1873 में 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' और 1874 में स्त्री शिक्षा के लिए 'बाला बोधिनी' नामक पत्रिकाओं का प्रकाशन किया. साथ ही उनके समांतर साहित्यिक संस्थाओं की नीव भी रखी. वैष्णव भक्ति के प्रचार के लिए उन्होंने 'तदीय समाज' की स्थापना की थी. भारतेन्दु जी की लोकप्रियता से प्रभावित होकर काशी के विद्वानों ने 1880 में उन्हें 'भारतेंदु' (भारत का चंद्रमा) की उपाधि प्रदान की थी.
भारतेन्दु जी ने हिंदी भाषा व हिंदी साहित्य दोनों के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया. भाषा के क्षेत्र में उन्होंने खड़ी बोली के उस रूप को प्रतिष्ठित किया जो उर्दू से भिन्न है और हिन्दी क्षेत्र की बोलियों का रस लेकर संवर्धित हुआ है. इसी भाषा में उन्होंने अपने सम्पूर्ण गद्य साहित्य की रचना की. भारतेन्दु जी ने जब साहित्य सृजन प्रारम्भ किया तो उस समय साहित्य में ब्रजभाषा का ज्यादा प्रयोग हो रहा था. वहीँ फारसी के प्रभाव वाली उर्दू भी चलन में आ गई थी. ऐसे समय में भारतेन्दु ने लोकभाषाओं और फारसी से मुक्त उर्दू के आधार पर खड़ी बोली का विकास किया. आज जो हिंदी हम लिखते-बोलते हैं, वह भारतेंदु की ही देन है. यही कारण है कि उन्हें आधुनिक हिंदी का जनक माना जाता है. केवल भाषा ही नहीं, साहित्य में उन्होंने नवीन आधुनिक चेतना का समावेश किया और साहित्य को 'जन' से जोड़ा.
हिंदी साहित्य और भाषा के लिए भारतेन्दु जी द्वारा दिया गया योगदान अविस्मणीय है. उन्होंने अपनी लेखनी से हिंदी भाषा व साहित्य को नई दिशा दी. आज जो हिंदी भाषा और साहित्य की गरिमा और महत्व पूरे विश्व में हैं उसका श्रेय भारतेन्दु जी को ही जाता. भारतेन्दु जी कि काव्य प्रतिभा भी वृहद थी. उन्होंने प्रेम गीत, देशभक्ति कविता, बाल कविता, ग़ज़ल आदि अन्य काव्य विधाओं पर रचना की. पढ़िए अलग अलग काव्य विधाओं की उनकी कुछ रचनाएं[१] बाली कविता -
चना जोर गरम।
चना बनावैं घासी राम। जिनकी झोली में दूकान।।
चना चुरमुर-चुरमुर बोलै। बाबू खाने को मुँह खोलै।।
चना खावैं तोकी मैना। बोलैं अच्छा बना चबैना।।
चना खाएँ गफूरन, मुन्ना। बोलैं और नहिं कुछ सुन्ना।।
चना खाते सब बंगाली। जिनकी धोती ढीली-ढाली।।
चना खाते मियाँ जुलाहे। दाढ़ी हिलती गाहे-बगाहे।।
चना हाकिम सब खा जाते। सब पर दूना टैक्स लगाते।।
चना जोर गरम।।
[२] व्यंग्य कविता
चूरन अलमबेद का भारी, जिसको खाते कृष्ण मुरारी।।
मेरा पाचक है पचलोना, जिसको खाता श्याम सलोना।।
चूरन बना मसालेदार, जिसमें खट्टे की बहार।।
मेरा चूरन जो कोई खाए, मुझको छोड़ कहीं नहि जाए।।
हिंदू चूरन इसका नाम, विलायत पूरन इसका काम।।
चूरन जब से हिंद में आया, इसका धन-बल सभी घटाया।।
चूरन ऐसा हट्टा-कट्टा, कीन्हा दाँत सभी का खट्टा।।
चूरन चला डाल की मंडी, इसको खाएँग