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फ़ासला चाँद बना देता है हर पत्थर को दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही - निदा फ़ाज़ली

दिन सलीक़े से उगा रात ठिकाने से रही। दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही।


इंसान में हैवान, यहां भी हैं वहां भी।

अल्लाह निगहबान, यहां भी है वहां भी।

खूंखार दरिंदों के फ़क़त नाम अलग हैं

शहरों में बयाबान, यहां भी हैं वहां भी।

रहमान की कुदरत हो या भगवान की मूरत

हर खेल का मैदान, यहां भी हैं वहां भी।

हिंदू भी मजे में है, मुसलमां भी मजे में

इंसान परेशान, यहां भी हैं वहां भी।

निदा का अर्थ होता है ‘आवाज़’ और फ़ाज़िला क़श्मीर के एक इलाके का नाम है। इन्ही दो लफ्जों ने उनका नाम पा लिया। निदा साहब के पुरखे फ़ाज़िला से ही ग्वालियर (म.प्र.) आए थे, इसलिए उन्होंने अपने नाम में फ़ाज़ली जोड़ लिया था। आज 12 अक्टूबर के दिन ही वर्ष 1938 में दिल्ली में उनकी पैदाइश हुई थी। हम अभी जानते है की निदा फ़ाज़ली को हिंदी-उर्दू के उन चंद अजीम शायरों और गीतकारों में शुमार किया जाता है, जिनकी हर लाइन लफ्जो की जन्नत में अनायास खींच ले जाती है। निदा साहब का असली नाम मुक़्तदा हसन है। निदा फ़ाज़ली उनका परिवार का दिया नाम है। उन्होंने अपना ज्यादातर लेखन इसी नाम से किया।

प्रतिगतिशील वामपंथी आंदोलन से जुड़े रहे निदा फ़ाज़ली को ताजिंदगी हर तबके से प्यार मिला और उनके गीतों को काफी पसंद भी किया गया। सन् 1964 में नौकरी की तलाश में निदा फ़ाज़ली मुंबई गए और फिर वहीं के होकर रह गए। उन्होंने अपने शुरुआती करियर के दौरान 'धर्मयुग' और 'ब्लिट्ज' के लिए लिखा। तभी उनके लिखने के अंदाज ने फिल्मी दुनिया के दिग्गजों को कायल किया और फिर बॉलीवुड से जो रिश्ता बना, हमेशा कायम रहा। निदा फ़ाज़ली ने गज़ल और गीतों के अलावा दोहा और नज़्में भी लिखीं, जिन्हे पूरी दुनिया ने सराहा। उनकी शायरी की एक खास खूबी ये रही कि उनके अ’शार में फारसी शब्दों के बजाय बड़ी नजाकत से देसी जुबान का इस्तेमाल किया गया! निदा फ़ाज़ली शायरी में डूबे उस शख्स का नाम है, जिसकी शायरी से रसखान, रहीम, तुलसी, गालिब और सूर के पदों की खुशबुएं बरसती हैं। फिरकापरस्ती के आलम में निदा की शायरी मनुष्य की चेतना को इंसानियत की सुगंध से सराबोर कर देती है। दिल्ली में जन्मे और ग्वालियर से पढ़ाई करने के दौरान मुक्तदा हसन के बारे में भला कौन जानता था कि वह शख्स एक दिन निदा बन कर देश-दुनिया की फिजाओं में गूंजेगा। निदा से जुड़ा एक वाकया पाकिस्तान का है। उस वक्त वह एक मुशायरे में पाक गए थे। जब उन्होंने ये लाजवाब ग़ज़ल पढ़ी, एक ओर तो वाह-वाह का शोर उठा, दूसरी तरफ इस पर कट्टरपंथियों ने यह कह कर उनका विरोध किया कि क्या बच्चा अल्लाह से बढ़कर है? तब निदा फ़ाज़ली ने जो उत्तर दिया था वह काबिले गौर था। उन्होंने कहा था-

मस्जिद तो इंसान बनाता है पर बच्चों को खुदा खुद अपने हाथों से रचता है:

अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाए।

घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाए।

जिन चिराग़ों को हवाओं का कोई ख़ौफ़ नहीं

उन च

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