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मिलिए आधुनिक हिंदी के दस श्रेष्ठ कवियों से

[Kavishala Labs] आधुनिक हिंदी साहित्य में काव्य विधा को नई दिशा देने में कई श्रेष्ठ कवियों का उल्लेखनीय योगदान है. इन कवियों ने न केवल हिंदी साहित्य को समृद्ध किया व कविता को नई दिशा दी बल्कि अपनी रचनाओं के द्वारा सामाजिक, राजनीतिक व धार्मिक अव्यवस्थाओं पर प्रहार भी किया. आइये मिलते हैं ऐसे ही 10 श्रेष्ठर आधुनिक हिंदी कवियों से-

 

(१) सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' (२१ फरवरी, १८९६ - १५ अक्टूबर, १९६१) हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं. उन्होंने कई कहानियाँ, उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेषरुप से कविता के कारण ही है. पढ़िए उनकी कविता,-

[१]


तोड़ती पत्थर

वह तोड़ती पत्थर;

देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-

वह तोड़ती पत्थर।


कोई न छायादार

पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;

श्याम तन, भर बंधा यौवन,

नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,

गुरु हथौड़ा हाथ,

करती बार-बार प्रहार:-

सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।


चढ़ रही थी धूप;

गर्मियों के दिन,

दिवा का तमतमाता रूप;

उठी झुलसाती हुई लू

रुई ज्यों जलती हुई भू,

गर्द चिनगीं छा गई,

प्रायः हुई दुपहर:-

वह तोड़ती पत्थर।


देखते देखा मुझे तो एक बार

उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;

देखकर कोई नहीं,

देखा मुझे उस दृष्टि से

जो मार खा रोई नहीं,

सजा सहज सितार,

सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।


एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,

ढुलक माथे से गिरे सीकर,

लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-

"मैं तोड़ती पत्थर।"

(२) जयशंकर प्रसाद (३० जनवरी १८८९ - १५ नवंबर १९३७) हिन्दी कवि, नाटककार, उपन्यासकार तथा निबन्धकार थे। वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्होंने हिन्दी काव्य में एक तरह से छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में न केवल कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई, बल्कि जीवन के सूक्ष्म एवं व्यापक आयामों के चित्रण की शक्ति भी संचित हुई और कामायनी तक पहुँचकर वह काव्य प्रेरक शक्तिकाव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गया। बाद के प्रगतिशील एवं नई कविता दोनों धाराओं के प्रमुख आलोचकों ने उसकी इस शक्तिमत्ता को स्वीकृति दी। इसका एक अतिरिक्त प्रभाव यह भी हुआ कि खड़ीबोली हिन्दी काव्य की निर्विवाद सिद्ध भाषा बन गयी। पढ़िए उनकी कविता, -[१] 

ले चल वहाँ भुलावा देकर

मेरे नाविक ! धीरे-धीरे ।

जिस निर्जन में सागर लहरी,

अम्बर के कानों में गहरी,

निश्छल प्रेम-कथा कहती हो-

तज कोलाहल की अवनी रे ।

जहाँ साँझ-सी जीवन-छाया,

ढीली अपनी कोमल काया,

नील नयन से ढुलकाती हो-

ताराओं की पाँति घनी रे ।


जिस गम्भीर मधुर छाया में,

विश्व चित्र-पट चल माया में,

विभुता विभु-सी पड़े दिखाई-

दुख-सुख बाली सत्य बनी रे ।

श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से

जहाँ सृजन करते मेला से,

अमर जागरण उषा नयन से

बिखराती हो ज्योति घनी रे


(३) सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" (७ मार्च, १९११ - ४ अप्रैल, १९८७) को कवि, शैलीकार, कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ देने वाले कथाकार, ललित-निबन्धकार, सम्पादक और अध्यापक के रूप में जाना जाता है। अज्ञेय प्रयोगवाद एवं नई कविता को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं। अनेक जापानी हाइकु कविताओं को अज्ञेय ने अनूदित किया। बहुआयामी व्यक्तित्व के एकान्तमुखी प्रखर कवि होने के साथ-साथ वे एक अच्छे फोटोग्राफर और सत्यान्वेषी पर्यटक भी थे। पढ़िए उनकी कविता, -[१]

जो पुल बनाएंगे

वे अनिवार्यत:

पीछे रह जाएंगे।

सेनाएं हो जाएँगी पार

मारे जाएंगे रावण

जयी होंगे राम,

जो निर्माता रहे

इतिहास में

बन्दर कहलाएंगे।


(४) नागार्जुन (३० जून १९११ - ५ नवम्बर १९९८ ) हिन्दी और मैथिली के अप्रतिम लेखक और कवि थे। अनेक भाषाओं के ज्ञाता तथा प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकार नागार्जुन ने हिन्दी के अतिरिक्त मैथिली संस्कृत एवं बाङ्ला में मौलिक रचनाएँ भी कीं तथा संस्कृत, मैथिली एवं बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित नागार्जुन ने मैथिली में यात्री उपनाम से लिखा तथा यह उपनाम उनके मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र के साथ मिलकर एकमेक हो गया। पढ़िए उनकी कविता,- [१]

खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक 

नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक 


उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक 

जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक 


बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक

धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक 


सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक 

जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक 


जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक 

बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक


(५) गजानन माधव मुक्तिबोध (१३ नवंबर १९१७ - ११ सितंबर १९६४) हिन्दी साहित्य के प्रमुख कवि, आलोचक, निबंधकार, कहानीकार तथा उपन्यासकार थे। उन्हें प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है। पढ़िए उनकी कविता, -

[१] मृत्यु और कवि

घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, निस्तब्ध वनान्तर

व्यापक अंधकार में सिकुड़ी सोयी नर की बस्ती भयकर

है निस्तब्ध गगन, रोती-सी सरिता-धार चली गहराती,

जीवन-लीला को समाप्त कर मरण-सेज पर है कोई नर

बहुत संकुचित छोटा घर है, दीपालोकित फिर भी धुंधला,

वधू मूर्छिता, पिता अर्ध-मृत, दुखिता माता स्पंदन-हीन

घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, कवि का मन गीला

"ये सब क्षनिक, क्षनिक जीवन है, मानव जीवन है क्षण-भंगुर" ।


ऐसा मत कह मेरे कवि, इस क्षण संवेदन से हो आतुर

जीवन चिंतन में निर्णय पर अकस्मात मत आ, ओ निर्मल !

इस वीभत्स प्रसंग में रहो तुम अत्यंत स्वतंत्र निराकुल

भ्रष्ट ना होने

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