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मिलिए मैथिली कविता के उत्कृष्ट कवियों से


मैथिली बोली में जो मिठास और अपनापन है वो किसी को भी अपनी ओर अनायास ही आकर्षित कर लेता है. मैथिली कवियों ने अपनी कविताओं में सामाजिक कुरीतियों जैसे बाल विवाह, विधवा विवाह, सरकारी तंत्र की अव्यवस्थाएं एवं भृष्टाचार आदि का खुल कर विरोध किया है. आइये मिलते है मैथिली भाषा के उत्कृष्ट कवियों से-


(1) विद्यापति (1352 - 1448, )भारतीय साहित्य की 'शृंगार-परम्परा' के साथ-साथ 'भक्ति-परम्परा' के प्रमुख स्तंभों मे से एक और मैथिली के सर्वोपरि कवि के रूप में जाने जाते हैं. इनके काव्यों में मध्यकालीन मैथिली भाषा का स्वरुप देखने को मिलता है. इन्हें वैष्णव , शैव और शाक्त भक्ति के सेतु के रूप में भी स्वीकार किया गया है. मिथिला के लोगों को 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा' का सूत्र दे कर इन्होंने उत्तरी-बिहार में लोकभाषा की जनचेतना को जीवित करने का महान् प्रयास किया है. प्रस्तुत है उनकी कविताएं-



[१] एत जप-तप हम की लागि कयलहु,


कथि लय कयल नित दान।


हमर धिया के इहो वर होयताह,


आब नहिं रहत परान।


नहिं छनि हर कें माय-बाप,


नहिं छनि सोदर भाय।


मोर धिया जओं ससुर जयती,


बइसती ककरा लग जाय।


घास काटि लऔती बसहा च्रौरती,


कुटती भांग–धथूर।


एको पल गौरी बैसहु न पौती,


रहती ठाढि हजूर।


भनहि विद्यापति सुनु हे मनाइनि,


दिढ़ करू अपन गेआन।


तीन लोक केर एहो छथि ठाकुर


गौरा देवी जान।




[२] नव जौबन नव नागरि सजनी गे


नव तन नव अनुराग


पहु देखि मोरा मन बढ़ल सजनी गे


जेहेन गोपी चन्द्राल


बाधल वृद्ध पयोनित सजनी गे


कहि गेलाह जीवक आदि


कतेक दिन हेरब हुनक पथ सजनी गे


आब बैसलऊँ जी हारि


हम परलऊँ दुख-सागर सजनी गे


नागर हमर कठोर


जानि नहिं पड़ल एहेन सन सजनी गे


दग्ध करत जीब मोर


धरम जयनाथ गाओल सजनी गे


कियो जुनि करय प्रीति


धैरज धय रहु कलावति सजनी गे


आज करत पहु रीती




(२) नागार्जुन (30जून 1911- 5 नवम्बर 1998) हिन्दी और मैथिली के अप्रतिम लेखक और कवि थे. अनेक भाषाओं के ज्ञाता तथा प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकार नागार्जुन ने हिन्दी के अतिरिक्त मैथिली संस्कृत एवं बांग्ला में मौलिक रचनाएँ भी कीं तथा संस्कृत, मैथिली एवं बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया. साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित नागार्जुन ने मैथिली में यात्री उपनाम से लिखा तथा यह उपनाम उनके मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र के साथ मिलकर एकमेक हो गया. प्रस्तुत है उनकी कविताएं-




[१] खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक


नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक




उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक


जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक




बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक


धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक




सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक


जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक




जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक


बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक




[२] मलाबार के खेतिहरों को अन्न चाहिए खाने को,


डंडपाणि को लठ्ठ चाहिए बिगड़ी बात बनाने को!


जंगल में जाकर देखा, नहीं एक भी बांस दिखा!


सभी कट गए सुना, देश को पुलिस रही सबक सिखा!




जन-गण-मन अधिनायक जय हो, प्रजा विचित्र तुम्हारी है


भूख-भूख चिल्लाने वाली अशुभ अमंगलकारी है!


बंद सेल, बेगूसराय में नौजवान दो भले मरे


जगह नहीं है जेलों में, यमराज तुम्हारी मदद करे।


ख्याल करो मत जनसाधारण की रोज़ी का, रोटी का,


फाड़-फाड़ कर गला, न कब से मना कर रहा अमरीका!


बापू की प्रतिमा के आगे शंख और घड़ियाल बजे!


भुखमरों के कंकालों पर रंग-बिरंगी साज़ सजे!


ज़मींदार है, साहुकार है, बनिया है, व्योपारी है,


अंदर-अंदर विकट कसाई, बाहर खद्दरधारी है!


सब घुस आए भरा पड़ा है, भारतमाता का मंदिर


एक बार जो फिसले अगुआ, फिसल रहे हैं फिर-फिर-फिर!


छुट्टा घूमें डाकू गुंडे, छुट्टा घूमें हत्यारे,


देखो, हंटर भांज रहे हैं जस के तस ज़ालिम सारे!

जो कोई इनके खिलाफ़ अंगुली उठाएगा बोलेगा,


काल कोठरी में ही जाकर फिर वह सत्तू घोलेगा!


माताओं पर, बहिनों पर, घोड़े दौड़ाए जाते हैं!


बच्चे, बूढ़े-बाप तक न छूटते, सताए जाते हैं!


मार-पीट है, लूट-पाट है, तहस-नहस बरबादी है,


ज़ोर-जुलम है, जेल-सेल है। वाह खूब आज़ादी है!


रोज़ी-रोटी, हक की बातें जो भी मुंह पर लाएगा,


कोई भी हो, निश्चय ही वह कम्युनिस्ट कहलाएगा!


नेहरू चाहे जिन्ना, उसको माफ़ करेंगे कभी नहीं,


जेलों में ही जगह मिलेगी, जाएगा वह जहां कहीं!


सपने में भी सच न बोलना, वर्ना पकड़े जाओगे,


भैया, लखनऊ-दिल्ली पहुंचो, मेवा-मिसरी पाओगे!


माल मिलेगा रेत सको यदि गला मजूर-किसानों का,


हम मर-भुक्खों से क्या होगा, चरण गहो श्रीमानों का!


(३) राजकमल चौधरी (13 दिसम्बर 1929 -19 जून 1967) हिन्दी और मैथिली के प्रसिद्ध कवि एवं कहानीकार थे. मैथिली में स्वरगंधा, कविता राजकमलक आदि कविता संग्रह, एकटा चंपाकली एकटा विषधर (कहानी संग्रह) तथा आदिकथा, फूल पत्थर एवं आंदोलन उनके चर्चित उपन्यास हैं. हिन्दी में उनकी संपूर्ण कविताएँ भी प्रकाशित हो चुकी हैं. प्रस्तुत हैं उनकी कविताएं-


[१] मैथिली कविता 


सभ पुरूष शिखण्डी


सभ स्त्री रासक राधा


सभक मोनमे धनुष तानि क’ बैसल


रक्त पियासल व्याधा


कत’ जाउ ? की करू ??


रावण बनि ककर सीताकें हरूं ?


सभ पुरूष शिखण्डी


सभी स्त्री रासक विकल राधा


कत’ जाउ ? की करू ??


चक्रव्यहूमे ककरो भरोस नहि करू


रे अभिमन्यु-मोन,


छोड़ि देश ई चलू बोन


सभ पुरूष खिलाड़ी


सभ स्त्री राधा


सभक मोनमे धनुष तानि क’ बैसल


रक्त पियासल व्याधा।


[२] हिंदी कविता 


बहुत अंधी थीं मेरी प्रार्थनाएँ।


मुस्कुराहटें मेरी विवश


किसी भी चंद्रमा के चतुर्दिक


उगा नहीं पाई आकाश-गंगा


लगातार फूल-


चंद्रमुखी!


बहुत अंधी थीं मेरी प्रार्थनाएँ।


मुस्कुराहटें मेरी विकल


नहीं कर पाई तय वे पद-चिन्ह।


मेरे प्रति तुम्हारी राग-अस्थिरता,


अपराध-आकांक्षा ने


विस्मय ने-जिन्हें,


काल के सीमाहीन मरुथल पर


सजाया था अकारण, उस दिन


अनाधार।


मेरी प्रार्थनाएँ तुम्हारे लिए


नहीं बन सकीं


गान,


मुझे क्षमा करो।


मैं एक सच्चाई थी


तुमने कभी मुझको अपने पास नहीं बुलाया।


उम्र की मखमली कालीनों पर हम साथ नहीं चले


हमने पाँवों से बहारों के कभी फूल नहीं कुचले


तुम रेगिस्तानों में भटकते रहे


उगाते रहे फफोले


मैं नदी डरती रही हर रात!


तुमने कभी मुझे कोई गीत गाने को नहीं कहा।


वक़्त के सरगम पर हमने नए राग नहीं बोए-काटे


गीत से जीवन के सूखे हुए सरोवर नहीं पाटे


हमारी आवाज़ से चमन तो क्या


काँपी नहीं वह डाल भी, जिस पर बैठे थे कभी!


तुमने ख़ामोशी को इर्द-गिर्द लपेट लिया


मैं लिपटी हुई सोई रही।


तुमने कभी मुझको अपने पास नहीं बुलाया


क्योंकि, मैं हरदम तुम्हारे साथ थी,


तुमने कभी मुझे कोई गीत गाने को नहीं कहा


क्योंकि हमारी ज़िन्दगी से बेहतर कोई संगीत न था,


(क्या है, जो हम यह संगीत कभी सुन न सके!)


मैं तुम्हारा कोई सपना नहीं थी, सच्चाई थी!


(४) सुरेन्द्र झा सुमन मैथिली भाषा के विख्यात साहित्यकार हैं. उन्होंने मैथिली भाषा में उत्कृष्ट कविताओं की रचना की है.उनके द्वारा रचित एक कविता–संग्रह पयस्विनी के लिये उन्हें सन् 1971 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. प्रस्तुत है उनकी कविताएं-



[१] मूल चूल धरि धरनि ई रूप जनीक अनूप


जयतु प्रकृति आकृति कलित दिशा-कला अनुरूप


अव्यक्तहु छवि व्यक्त जे प्रकृतिहु विकृति बनैछ


द्वैत भाव भरि अगुनकेँ जग-पट सगुन बुनैछ


काल - दिशा दुइ बिन्दुकेँ एक रेखमे लेख


स्वयं प्रकृति जड़-जंगमा, विद्या-ऽविद्या देख


बिन्दु-बीज, आकृति-विकृति, स्वर-व्यंजन, भू-स्वर्ग


मूल एक, व्याकृति प्रकृति अनुस्वार स-विसर्ग


जननी, गृहिणी, स्वामिनी, दासी, सरसि उदासि


भुक्ति-मुक्तिदा प्रतिपदा प्रकृति नवनवा बासि



[२] तक्षशिला नगरी मे ‘नग्गज’ रजा कहिओ


ज्वरपीड़ित उर दाह उठल, सकला नहि सहि ओ


हृदय लेप हित चानन घसबा लय सब ललना


जुटलि, सङहि आङन भरि झनकल कंचन-कङना


सहि न सकथि नृप शब्द, सोचि सभ बलया भाङल


केवल सधबा चिह्न एक चूड़ी टा बाँचल


छनहिं शब्द पुनि शान्त, स्वस्थ नृप मन मे जानल


द्वन्द्व रहित चित रहय शान्त, मत अद्वय मानल


(५) आरसी प्रसाद सिंह (१९ अगस्त १९११ - नवम्बर १९९६) मैथिली और हिन्दी के कवि थे. उन्हें रूप, यौवन और प्रेम के कवि के रूप में जाना जाता है. प्रस्तुत है उनकी कविताएं-


[१]मैथिली कविता


 बाजि गेल रनडँक, डँक ललकारि रहल अछि


गरजि—गरजि कै जन जन केँ परचारि रहल अछि


तरुण स्विदेशक की आबहुँ रहबें तों बैसल आँखि फोल,


दुर्मंद दानव कोनटा लग पैसल कोशी—कमला उमडि रहल,


कल्लौल करै अछि के रोकत ई बाढि,


ककर सामर्थ्यल अडै अछि स्वीर्ग देवता क्षुब्धँ,


राज—सिंहासन गेलै मत्त भेल गजराज,


पीठ लागल अछि मोलै चलि नहि सकतै आब सवारी


हौदा कसि कै ई अरदराक मेघ ने मानत,


रहत बरसि कै एक बेरि बस देल जखन कटिबद्ध “चुनौती”


फेर आब के घूरि तकै अछि साँठक पौती ?


आबहुँ की रहतीह मैथिली बनल—बन्दिगनी ?


तरुक छाह मे बनि उदासिनी जनक—नन्दिनी डँक बाजि गेल,


आगि लँक मे लागि रहल अछि अभिनव


विद्यापतिक भवानि जागि रहल अछि


[२] हिंदी कविता 


तब कौन मौन हो रहता है?


जब पानी सर से बहता है।


चुप रहना नहीं सुहाता है,


कुछ कहना ही पड़ जाता है।


व्यंग्यों के चुभते बाणों को


कब तक कोई भी सहता है?


जब पानी सर से बहता है।


अपना हम जिन्हें समझते हैं।


जब वही मदांध उलझते हैं,


फिर तो कहना पड़ जाता ही,


जो बात नहीं यों कहता है।


जब पानी सर से बहता है।


दुख कौन हमारा बाँटेगा


हर कोई उल्टे डाँटेगा।


अनचाहा संग निभाने में


किसका न मनोरथ ढहता है?


जब पा

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