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कविताओं में जलते दीप।

दीपमाला में मुसर्रत की खनक शामिल है

दीप की लौ में खिले गुल की चमक शामिल है

जश्न में डूबी बहारों का ये तोहफ़ा शाहिद

जगमगाहट में भी फूलों की महक शामिल है

-शाहिद मिर्ज़ा शाहिद


सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण दिवाली के इस पर्व में पूरा देश दिये की रौशनी से जगमगा रहा है। तो चलिए इस शुभ पर्व में हिंदी कवियों की प्रसिद्ध कविताओं में जलते दीपावली के दीपकों को शब्दों के माध्यम से पढ़ते हैं :

[जब प्रेम के दीपक जलते हों]


उस रोज़ ‘दिवाली’ होती है ।

जब मन में हो मौज बहारों की,

चमकाएँ चमक सितारों की,

जब ख़ुशियों के शुभ घेरे हों

तन्हाई में भी मेले हों,

आनंद की आभा होती है,

उस रोज़ ‘दिवाली’ होती है ।


जब प्रेम के दीपक जलते हों

सपने जब सच में बदलते हों,

मन में हो मधुरता भावों की

जब लहके फ़सलें चावों की,

उत्साह की आभा होती है

उस रोज़ दिवाली होती है ।


जब प्रेम से मीत बुलाते हों

दुश्मन भी गले लगाते हों,

जब कहींं किसी से वैर न हो

सब अपने हों, कोई ग़ैर न हो,

अपनत्व की आभा होती है

उस रोज़ दिवाली होती है ।


जब तन-मन-जीवन सज जाएं

सद्-भाव के बाजे बज जाएं,

महकाए ख़ुशबू ख़ुशियों की

मुस्काएं चंदनिया सुधियों की,

तृप्ति की आभा होती है

उस रोज़ ‘दिवाली’ होती है।

– अटल बिहारी वाजपेयी


[मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!]


मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!

युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल

प्रियतम का पथ आलोकित कर!


सौरभ फैला विपुल धूप बन

मृदुल मोम-सा घुल रे, मृदु-तन!

दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित,

तेरे जीवन का अणु गल-गल

पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!


तारे शीतल कोमल नूतन

माँग रहे तुझसे ज्वाला कण;

विश्व-शलभ सिर धुन कहता मैं

हाय, न जल पाया तुझमें मिल!

सिहर-सिहर मेरे दीपक जल!


जलते नभ में देख असंख्यक

स्नेह-हीन नित कितने दीपक

जलमय सागर का उर जलता;

विद्युत ले घिरता है बादल!

विहँस-विहँस मेरे दीपक जल!


द्रुम के अंग हरित कोमलतम

ज्वाला को करते हृदयंगम

वसुधा के जड़ अन्तर में भी

बन्दी है तापों की हलचल;

बिखर-बिखर मेरे दीपक जल!


मेरे निस्वासों से द्रुततर,

सुभग न तू बुझने का भय कर।

मैं अंचल की ओट किये हूँ!

अपनी मृदु पलकों से चंचल

सहज-सहज मेरे दीपक जल!


सीमा ही लघुता का बन्धन

है अनादि तू मत घड़ियाँ गिन

मैं दृग के अक्षय कोषों से-

तुझमें भरती हूँ आँसू-जल!

सहज-सहज मेरे दीपक जल!


तुम असीम तेरा प्रकाश चिर

खेलेंगे नव खेल निरन्तर,

तम के अणु-अणु में विद्युत-सा

अमिट चित्र अंकित करता चल,

सरल-सरल मेरे दीपक जल!


तू जल-जल जितना होता क्षय;

यह समीप आता छलनामय;

मधुर मिलन में मिट जाना तू

उसकी उज्जवल स्मित में घुल खिल!

मदिर-मदिर मेरे दीपक जल!

प्रियतम का पथ आलोकित कर!

-महादेवी वर्मा


[दिवाली रोज मनाएं]


दिवाली रोज मनाएं

फूलझड़ी फूल बिखेरेचकरी चक्कर खाए

अनार उछला आसमान तक

रस्सी-बम धमकाए

सांप की गोली हो गई लम्बी

रेल धागे पर दौड़ लगाएआग लगाओ रॉकेट को तो

वो दुनिया नाप आए

टिकड़ी के संग छोटे-मोटेबम बच्चों को भाए

ऐसा लगता है दिवाली

हम तुम रोज मनाएं।

– संदीप फाफरिया ‘सृजन’


[बचपन बाली दीवाली]


हफ्तों पहले से साफ़-सफाई में जुट जाते हैं।

चूने के कनिस्तर में थोड़ी नील मिलाते हैं।

अलमारी खिसका खोयी चीज़ वापस पाते हैं।

दोछत्ती का कबाड़ बेच कुछ पैसे कमाते हैं ।

चलो इस दफ़े दिवाली घर पे मनाते हैं ….।

दौड़-भाग के घर का हर सामान लाते हैं ।

चवन्नी -अठन्नी पटाखों के लिए बचाते हैं।

सजी बाज़ार की रौनक देखने जाते हैं।

सिर्फ दाम पूछने के लिए चीजों को उठाते हैं।

चलो इस दफ़े दिवाली घर पे मनाते हैं ….।

बिजली की झालर छत से लटकाते हैं।

कुछ में मास्टर बल्ब भी लगाते हैं।

टेस्टर लिए पूरे इलेक्ट्रीशियन बन जाते हैं।

दो-चार बिजली के झटके भी खाते हैं।

चलो इस दफ़े दिवाली घर पे मनाते हैं ….।

दूर थोक की दुकान से पटाखे लाते है।

मुर्गा ब्रांड हर पैकेट में खोजते जाते है।

दो

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