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जो निर्माता रहे, इतिहास में बन्दर कहलाएँगे | अज्ञेय

जो पुल बनाएँगे

वे अनिवार्यत:

पीछे रह जाएँगे।

सेनाएँ हो जाएँगी पार

मारे जाएँगे रावण

जयी होंगे राम,

जो निर्माता रहे

इतिहास में

बन्दर कहलाएँगे।


[Kavishala Labs]अज्ञेय की यह कविता पढ़ने में तो बहुत साधारण प्रतीत होती है लेकिन इस कविता में जो गूढ़ रहस्य छुपा है वो हमें और आपको सोंचने में मजबूर कर देता है. अज्ञेय हिंदी साहित्य में आधुनिकता के प्रमुख स्तम्भ थे. उन्होंने हिंदी गद्य व पद्य साहित्य को नई दिशा दी.


सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' (7 मार्च, 1911 - 4 अप्रैल, 1987) हिंदी के कवि, कथाकार, आलोचक, अनुवादक, व संपादक थे. उन्हें हिंदी कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ देने वाले कथाकार, ललित-निबन्धकार, सम्पादक और अध्यापक के रूप में जाना जाता है. अज्ञेय प्रयोगवाद एवं नई कविता को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं. अनेक जापानी हाइकु कविताओं को अज्ञेय ने अनूदित किया. बहुआयामी व्यक्तित्व के एकान्तमुखी प्रखर कवि होने के साथ-साथ वे एक अच्छे फोटोग्राफर और सत्यान्वेषी पर्यटक भी थे.  

 

मुंशी प्रेमचंद ने दिया "अज्ञेय" नाम : सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन क्रांतिकारी आन्दोलन से भी जुड़े रहे. वे अपनी रचनाएं छुप कर छपवाया करते थें. कहा जाता है कि अज्ञेय ने जैनेंद्र कुमार के पास अपनी रचनाएं प्रकाशन के लिए भेजीं. जैनेंद्र जी ने वह रचनाएं प्रेमचंद जी को दीं. रचनाओें पर लेखक का नाम नहीं था. प्रेमचंद ने उनसे रचनाओं के लेखक का नाम पूछ.। इस पर जैनेंद्र जी ने कहा- 'लेखक का नाम तो नहीं बताया जा सकता, वह तो 'अज्ञेय' है.' इस पर प्रेमचंद जी ने कहा, 'तब मैं 'अज्ञेय' नाम से ही कहानी छाप दूंगा.' फिर, उसी दिन से 'अज्ञेय' नाम से रचनाएं प्रकाशित होने लगीं.


हिंदी साहित्य में अज्ञेय ने गूढ़ कविताओं की रचना कर कविता में 'दर्शन' के रहस्य को जन्म दिया है. उनकी शब्द-प्रतिभा ने हिंदी में कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ दिया. उनकी कविताएं पढ़ने में तो सहज व सरल सी प्रतीत होती हैं. लेकिन उनकी कविताओं का अर्थ अत्यंत ही गूढ़ रहस्य समेटे होती हैं. पढ़िए एक बानग''दुःख सब को माँजता है

  और -

  चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने , किन्तु-

  जिन को माँजता है

  उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।''


अपनी यायावरी प्रवत्ति के कारण अज्ञेय ने देश-विदेश की यात्राएं कीं. दिल्ली लौटे और दिनमान साप्ताहिक, नवभारत टाइम्स, अंग्रेजी पत्र वाक् और एवरीमैंस जैसी प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया. 1980 में उन्होंने वत्सलनिधि नामक एक न्यास की स्थापना की जिसका उद्देश्य साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कार्य करना था. 


उन्होने हिंदी कविता में ‘सप्तक परंपरा’ को जन्म दिया. साहित्यिक योगदान के लिए अज्ञेय को कई पुरष्कारों से सम्मानित किया गया. 1964 में आँगन के पार द्वार पर उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ और 1978 में कितनी नावों में कितनी बार पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया. पढ़िए अज्ञेय कि कुछ कविताएं -



[१] 

नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं

पुते गालों के ऊपर

नकली भवों के नीचे

छाया प्यार के छलावे बिछाती

मुकुर से उठाई हुई

मुस्कान मुस्कुराती

ये आँखें -

नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं...

 

तनाव से झुर्रियाँ पड़ी कोरों की दरार से

शरारे छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियाँ -

नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं...

 

वन डालियों के बीच से

चौंकी अनपहचानी

कभी झाँकती हैं

वे आँखें,

मेरे देश की आँखें,

खेतों के पार

मेड़ की लीक धारे

क्षिति-रेखा को खोजती

सूनी कभी ताकती हैं

वे आँखें...

 

उसने

झुकी कमर सीधी की

माथे से पसीना पोछा

डलिया हाथ से छोड़ी

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