
[Kavishala Labs] हिंदी साहित्य का विकास कई चरणों में हुआ. समय के साथ साथ कई विद्वान साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं व प्रयोगों से न केवल हिंदी साहित्य को समृद्ध किया बल्कि उन्होंने हिंदी साहित्य को एक नई दिशा दी. हिंदी साहित्य के विकास में जिन विद्वान साहित्यकारों ने योगदान दिया उनमे से एक हैं अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध. अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध ने हिंदी गद्य व पद्य साहित्य में अतुलनीय योगदान दिया है.
अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' (15 अप्रैल, 1865-16 मार्च, 1947) हिन्दी के एक सुप्रसिद्ध साहित्यकार थे. द्विवेदी युग के प्रमुख प्रतिनिधि कवियों व लेखकों में अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' का विशेष स्थान है. वे 2 बार हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति रह चुके हैं और सम्मेलन द्वारा विद्यावाचस्पति की उपाधि से सम्मानित किये जा चुके हैं. प्रिय प्रवास हरिऔध जी का सबसे प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण ग्रंथ है. यह हिंदी खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है और इसे मंगलाप्रसाद पारितोषिक पुरस्कार प्राप्त हो चुका है.
हरिऔध जी ने विविध संदर्भो पर कविताएं लिखी हैं. उनकी विशेषता है कि उन्होंने कृष्ण-राधा, राम-सीता से संबंधित विषयों के साथ-साथ आधुनिक समस्याओं को भी लिया है और उन पर नवीन ढंग से अपने विचार प्रस्तुत किए हैं. प्राचीन और आधुनिक भावों के मिश्रण से उनके काव्य में एक अद्भुत चमत्कार उत्पन्न हो गया है. वियोग तथा वात्सल्य-वर्णन- प्रिय प्रवास में कृष्ण के मथुरा गमन तथा उसके बाद ब्रज की दशा का मार्मिक वर्णन किया है. पुत्र-वियोग में व्यथित यशोदा का करुण चित्र हरिऔध जी ने मार्मिक रूप से किया है, -
प्रिय प्रति वह मेरा प्राण प्यारा कहाँ है?
दुःख जल निधि डूबी का सहारा कहाँ है?
लख मुख जिसका मैं आजलौं जी सकी हूँ।
वह ह्रदय हमारा नैन तारा कहाँ है?
हरिऔध जी ने ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों में ही काव्य रचनाएं की हैं, किंतु उनकी अधिकांश रचनाएं खड़ी बोली में ही हैं. हरिऔध जी की भाषा प्रौढ़, प्रांजल और आकर्षक है. कहीं-कहीं उसमें उर्दू-फारसी के भी शब्द भी देखने को मिलते हैं. नवीन और अप्रचलित शब्दों का प्रयोग भी हुआ है. संस्कृत के तत्सम शब्दों की तो इतनी अधिकता है कि कहीं-कहीं उनकी कविता हिंदी की न होकर संस्कृत की सी ही प्रतीत होने लगती है. उनके द्वारा राधा का रूप-वर्णन करते समय यह तथ्य परिलक्षित होता है-
रूपोद्याम प्रफुल्ल प्रायः कलिका राकेंदु-बिंबानना,
तन्वंगी कल-हासिनी सुरसि का क्रीड़ा-कला पुत्तली।
शोभा-वारिधि की अमूल्य मणि-सी लावण्य लीलामयी,
श्री राधा-मृदु भाषिणा मृगदगी-माधुर्य की मूर्ति थी।
हरिऔध जी को भाषा की अच्छी समझ थी. एक ओर जहाँ उन्होंने संस्कृत-गर्भित उच्च साहित्यिक भाषा में कविता लिखी वहाँ दूसरी ओर उन्होंने सरल तथा मुहावरेदार व्यावहारिक भाषा को भी सफलतापूर्वक अपनाया. उनके चौपदों की भाषा इसी प्रकार की है. एक उदाहरण देखिये,-
नहीं मिलते आँखों वाले, पड़ा अंधेरे से है पाला।
कलेजा किसने कब थामा, देख छिलते दिल का छाला।।
हरिऔध जी ने गद्य और पद्य दोनों ही क्षेत्रों में हिंदी की साहित्य सेवा की. उन्होंने सर्वप्रथम खड़ी बोली में काव्य-रचना करके यह सिद्ध कर दिया कि उसमें भी ब्रजभाषा के समान खड़ी बोली की कविता में भी सरसता और मधुरता आ सकती है. 'उनका प्रिय प्रवास' हिंदी खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य माना जाता है. प्रिय प्रवास' काव्यगत विशेषताओं के कारण हिंदी महाकाव्यों में मील का पत्थर माना जाता है.
हरिऔध जी जैसी काव्य विशेषता विरले ही देखने को मिलती है. सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने हरिऔध जी के बारे में कहा था कि, 'इनकी यह एक सबसे बड़ी विशेषता है कि ये हिंदी के सार्वभौम कवि हैं। खड़ी बोली, उर्दू के मुहावरे, ब्रजभाषा, कठिन-सरल सब प्रकार की कविता की रचना कर सकते हैं'
हिंदी साहित्य में अतुलनीय योगदान देने के लिए अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध को सदैव याद किया जायेगा. उनकी रचनाएं नए साहित्यकारों