
"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः
भारतीय संस्कृति में स्त्री को पूज्य्नीय और सम्माननीय माना गया है. भारतीय सभ्यता के विकास के प्रारम्भ से ही "स्त्री" को न सिर्फ पुरुष के समकक्ष रखा गया है बल्कि स्त्रियों को एक विशेष दर्जा दिया गया. सम्पूर्ण संसार को जिवंत रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली "प्रकृति" को भी भारतीय विद्वानों ने नारी की ही उपमा दी है. आज अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस पर हम भारतीय इतिहास और साहित्य में "स्त्री" की महत्वता पर एक नजर डालेंगे.
वेद की ऋचाओं से लेकर हिंदी साहित्य तक "स्त्री" को विशेष महत्व दिया गया है. हालाँकि समय समय भारत ने कई विदेशी आक्रमण सहे, पृथक सभ्यता और संस्कृति के लोगों ने सैकड़ों वर्ष भारत पर शासन किया. जिसके परिणाम स्वरुप भारतीय संभ्यता बनती बिगड़ती रही. जिस देश में नारी को पूज्यनीय कहा जाता रहा है, उसी देश में "सती प्रथा" और "बालविवाह" जैसी कुरीतियां जन्मी. रूढ़ि मानसिकता की वजह से विधवा स्त्रियों को सती प्रथा के नाम पर जबरन जिन्दा जलने पर विवस किया गया. स्त्रियों को तरह-तरह की यातनाएं झेलनी पड़ीं. लेकिन जैसा की भारत की आत्मा में "स्त्रियों" के प्रति सम्मान बसा है. भारतीय संस्कृति की जड़ों में स्त्री-पुरुष को समकक्ष माना गया. अतएव अनेक शासकों और विभिन्न सभ्यताएं के मिश्रण से जन्मी कुरीतियां(खासकर "स्त्री" पक्ष को लेकर) ज्यादा समय तक भारत में जीवित नहीं रह सकती. लगभग 3 सदी पहले भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत और आधुनिक भारत का जनक
कहे जाने वाले राजा राममोहन रॉय ने भारत में स्त्री जाति को लेकर जन्मी कुरीतियों का विरोध किया. और स्त्री-पुरुष के मध्य "रूढ़िवादी सोंच की खाई" को मिटाया. राजा राममोहनराय ने 1818 में सती प्रथा का विरोध किया और उनके प्रयत्नों के फलस्वरूप 1829 में लार्ड विलियम बैण्टिक ने सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया। बाल-विवाह, विधवा-विवाह और बहुपत्नी प्रथा के विरुद्ध लड़ते हुए राजा राममोहनराय स्त्री अधिकारों के पक्षधर रहे.
राममोहनराय के प्रयास से काफी बदलाव आये और स्त्रियों को समाज में जीने की नई और अपेक्षित दिशा मिली. 19वीं सदी तक "बाल-विवाह" और "सती प्रथा" जैसी कुरीतियों काफी हद तक ख़त्म हो चुकी थीं. लेकिन इस समय भी स्त्रियों को समाज में बराबरी का दर्जा नहीं मिल सका था. पुरुष प्रधानता और "रूढ़ि" सोंच स्त्रियों को सिर्फ रसोईं तक सिमित रखना चाहती थी. स्त्रियों को "उपभोग की वस्तु" और "बच्चा पैदा करने की मशीन" समझा जा रहा था. ऐसे समय में "मंटो" और "इस्मत चुग़ताई" जैसे साहित्यकारों ने समाज को आइना दिखाने का काम किया और स्त्री के पक्ष में बात की. मंटो ने तो समाज को आइना दिखते हुए कहा था कि -
"जो लोग ये समझ नहीं पाते कि औरत क्या चीज़ है, उन्हें पहले ये समझने की ज़रूरत है कि औरत चीज़ नहीं है!"
साहित्य सदैव से ही सामाजिक कुरीतियों के विरोध में रहा है. हिन्दी साहित्य में "स्त्री विमर्श" तो एक महत्वपूर्ण विषय है. छायावाद काल से "स्त्री विमर्श" का जन्म माना जाता है. हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श उस साहित्यिक आंदोलन को कहा गया है जिसमें स्त्री को केंद्र में रखकर स्त्री साहित्य की रचना की गई.
१९वीं सदी में में ही दूधनाथ सिंह जैसे लेखक व विचारक जन्मे जिन्होंने अपनी कहानियों में स्त्री-पुरुष के समानता की बात की. दूधनाथ सिंह की कहानी "नपनी" लड़की को वस्तु समझने वालों की सोच पर जोरदार तमाचा है. इसी दौर में महादेवी वर्मा और अमृता प्रीतम जैसी शशक्त कवयित्री जन्मी. जिनकी कविताएं आज भी महिलाओं का हौसला बढाती हैं.
सन् 1960 ई . में नारी सशक्तिकरण में तेजी आई. उषा प्रियम्वदा, कृष्णा सोबती, मन्नू भण्डारी, शिवानी एवं मैत्रेयी पुष्पा आदि लेखिकाओं ने नारी मन के अंतर्द्वंद व आप बीती घटनाओं को उकरेना शुरू किया. आज के भारत में स्त्री - विमर्श एक ज्वलंत मुद्दा