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'Quit India Movement / भारत छोड़ो आन्दोलन' पर अटल बिहारी वाजपेयी की कविता

नौ अगस्त सन बयालीस का लोहित स्वर्ण प्रभात,

जली आंसुओं की ज्वाला में परवशता की रात।

कारा के कोने कोने से कड़ियों की झनकार,

ऊब उठे सदियों के बंदी, लगे तोड़ने द्वार।

सुप्त शांत सागर में उठा महाप्रलय का ज्वार,

काले सिंहों की मांदो में आया गोया स्यार।

करो या मरो, भारत छोड़ो घन-सा गर्जा गांधी,

वृद्ध देश का यौवन मचला, चली गजब की आंधी।

गौरी शंकर के गिरी-गहर गूंजे ‘भारत छोड़ो’

गृह-आंगन-वन-उपवन कूजे ‘भारत छोड़ो’।

कुलू-कांगड़ा की अमराई डोली भारत छोड़ो,

विंध्यांचल की शैल-शिखरियाँ बोली भारत छोड़ो।

कोटि कोटि कंठों से निकला भारत छोड़ो नारा,

आज ले रहा अंतिम सांसें यह शासन हत्यारा।

सन सत्तावन से करते विप्लव की विप्लव प्रतिज्ञा,

सभी ले चुके अज़्ज़ादी हिट मर मरने की दीक्षा।

स्वतत्रता का युद्ध दूसरा, बजी समर की भेरी-

लानत कोटि कोटि पुत्रों की मां कहलाये चेरी।

सर पर कफ़न बांध कर निकली सरि-सी मस्त जवानी,

एक नया इतिहास बनाने, गढ़ने नयी कहानी।

सागर सी लहराती आयी मतवालों की टोली,

महलापरलय के बादल गरजे इंकलाब की बोली।

माताओं ने निज पुत्रों के माथे पर दी रोली,

और पुत्र ने गोली खाने हित छाती खोली।

बहिन वसंती बाने में सजी लगी जोहर सुनने,

स्वतंत्रता के दीपक पर जलते पागल परवाने।

कैसी विअकल प्रतीक्षा, आंखें राह देखते हारी,

लाल न आया, रीत गयी मां के नयनों की झारी।

सारा देश विशाल जेल या कौन सींकचे तोड़े,

पूर्व दिशा से आकर कोई अग्निबाण तो छोड़े।

बापू बंदी, बंद पींजड़े में था शेर जवाहर,

बंग भूमि का लाल न आया एक बार भी जाकर।

महादेव सा भाई खोया बा सी जननी खोई,

सकल देश की आंखें गंगा-जमुना बन रोई।

क्रूर काल ने विजयलक्ष्मी का सुहाग भी लूटा,

क्या भू लुंठित भारत का था भाग्य पूर्ण ही फूटा।

बुझी राख में धधक रहे थे अब तक भी अंगारे,

तड़िताघात बुझा न सकेगा नभ के जगमाज तारे।

तुन्हें कसम है आजादी पर मर मिटने वालों की,

तुम्हें कसम है फांसी पर चढ़ने वाले लालों की।

राज नारायण की फांसी क्या यों ही रह जायेगी,

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