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हास्य कविताओं में छुपा होता है गहरा मर्म

हिंदी साहित्य में कविता के कई रूप है. कविता कभी प्रेम का माध्यम बनती है तो कभी वेदना और विरह से विकल ह्रदय का संबल. कभी कविता प्रकृति की नयनाभिराम छवि का वर्णन कर मन मस्तिष्क को आनंद, स्फूर्ति और ऊर्जा से भर देती है तो कभी इतिहास के वीरो की गाथा का वर्णन कर हमारी रक्त शिराओं में अग्नि भर देती है. कविता निमिष मात्र में मानव के भाव को प्रभावित करने की क्षमता रखती है. कविता की विभिन्न शाखाओं में एक शाखा है "हास्य". यूँ तो हास्य कविताएं "क्षणिक मनो विनोद" की शैली मानी जाती है, लेकिन वास्तव में हास्य कवितायेँ खुद में गहन मर्म समेटे हुए होती हैं. प्रस्तुत हैं कुछ श्रेष्ठ कवियों की सारगर्भित हास्य कविताएं.


 भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (9 सितंबर 1850-6 जनवरी 1885) आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं. वे हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे. उन्होंने हिंदी साहित्य को नया आयाम दिया है. प्रस्तुत है उनकी हास्य व्यंग्य कि कविताएं -


[१] चूरन का लटका 

चूरन अलमबेद का भारी, जिसको खाते कृष्ण मुरारी।।

मेरा पाचक है पचलोना, जिसको खाता श्याम सलोना।।

चूरन बना मसालेदार, जिसमें खट्टे की बहार।।

मेरा चूरन जो कोई खाए, मुझको छोड़ कहीं नहि जाए।।

हिंदू चूरन इसका नाम, विलायत पूरन इसका काम।।

चूरन जब से हिंद में आया, इसका धन-बल सभी घटाया।।

चूरन ऐसा हट्टा-कट्टा, कीन्हा दाँत सभी का खट्टा।।

चूरन चला डाल की मंडी, इसको खाएँगी सब रंडी।।

चूरन अमले सब जो खावैं, दूनी रिश्वत तुरत पचावैं।।

चूरन नाटकवाले खाते, उसकी नकल पचाकर लाते।।

चूरन सभी महाजन खाते, जिससे जमा हजम कर जाते।।

चूरन खाते लाला लोग, जिनको अकिल अजीरन रोग।।

चूरन खाएँ एडिटर जात, जिनके पेट पचै नहीं बात।।

चूरन साहेब लोग जो खाता, सारा हिंद हजम कर जाता।।

चूरन पुलिसवाले खाते, सब कानून हजम कर जाते।।


[२] चने का लटका 


चना जोर गरम।

चना बनावैं घासी राम। जिनकी झोली में दूकान।।

चना चुरमुर-चुरमुर बोलै। बाबू खाने को मुँह खोलै।।

चना खावैं तोकी मैना। बोलैं अच्छा बना चबैना।।

चना खाएँ गफूरन, मुन्ना। बोलैं और नहिं कुछ सुन्ना।।

चना खाते सब बंगाली। जिनकी धोती ढीली-ढाली।।

चना खाते मियाँ जुलाहे। दाढ़ी हिलती गाहे-बगाहे।।

चना हाकिम सब खा जाते। सब पर दूना टैक्स लगाते।।

चना जोर गरम।।


हुल्लड़ मुरादाबादी (29 मई 1942 – 12 जुलाई 2014 ) एक हिंदी हास्य कवि थे.हुल्लड़ मुरादाबादी को कलाश्री, अट्टहास सम्मान, हास्य रत्न सम्मान, काका हाथरसी पुरस्कार जैसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. प्रस्तुत है उनकी हास्य कविता -


[१]

क्या बताएं आपसे हम हाथ मलते रह गए

गीत सूखे पर लिखे थे, बाढ़ में सब बह गए


भूख, महंगाई, ग़रीबी इश्क़ मुझसे कर रहीं थीं

एक होती तो निभाता, तीनों मुझपर मर रही थीं

मच्छर, खटमल और चूहे घर मेरे मेहमान थे

मैं भी भूखा और भूखे ये मेरे भगवान थे

रात को कुछ चोर आए, सोचकर चकरा गए

हर तरफ़ चूहे ही चूहे, देखकर घबरा गए

कुछ नहीं जब मिल सका तो भाव में बहने लगे

और चूहों की तरह ही दुम दबा भगने लगे

हमने तब लाईट जलाई, डायरी ले पिल पड़े

चार कविता, पांच मुक्तक, गीत दस हमने पढे

चोर क्या करते बेचारे उनको भी सुनने पड़े


रो रहे थे चोर सारे, भाव में बहने लगे

एक सौ का नोट देकर इस तरह कहने लगे

कवि है तू करुण-रस का, हम जो पहले जान जाते

सच बतायें दुम दबाकर दूर से ही भाग जाते

अतिथि को कविता सुनाना, ये भयंकर पाप है

हम तो केवल चोर हैं, तू डाकुओं का बाप है


[२] मसखरा मशहूर है, आँसू बहानेके लिए

बाँटता है वो हँसी, सारे ज़माने के लिए


घाव सबको मत दिखाओ, लोग छिड़केंगे नमक

आएगा कोई नहीं मरहम लगाने के लिए


देखकर तेरी तरक्की, ख़ुश नहीं होगा कोई

लोग मौक़ा ढूँढते हैं, काट खाने के लिए


फलसफ़ा कोई नहीं है, और न मकसद कोई

लोग कुछ आते जहाँ में, हिनहिनाने के लिए


मिल रहा था भीख में, सिक्का मुझे सम्मान का

मैं नहीं तैयार झुककर उठाने के लिए


ज़िंदगी में ग़म बहुत हैं, हर कदम पर हादसे रोज

कुछ समय तो निकालो, मुस्कुराने के लिए


काका हाथरसी -सन 1906 में हाथरस में जन्मे काका हाथरसी (असली नाम: प्रभुलाल गर्ग) हिंदी हास्य कवि थे. उनकी शैली की छाप उनकी पीढ़ी के अन्य कवियों पर तो पड़ी ही, आज भी अनेक लेखक और व्यंग्य कवि काका की रचनाओं की शैली अपनाकर लाखों श्रोताओं और पाठकों का मनोरंजन कर रहे हैं. प्रस्तुत हैं उनकी कविताएं -


[१] व्यंग्य एक नश्तर है

ऐसा नश्तर, जो समाज के सड़े-गले अंगों की

शल्यक्रिया करता है

और उसे फिर से स्वस्थ बनाने में सहयोग भी।

काका हाथरसी यदि सरल हास्यकवि हैं

तो उन्होंने व्यंग्य के तीखे बाण भी चलाए हैं।

उनकी कलम का कमाल कार से बेकार तक

शिष्टाचार से भ्रष्टाचार तक

विद्वान से गँवार तक

फ़ैशन से राशन तक

परिवार से नियोजन तक

रिश्वत से त्याग तक

और कमाई से महँगाई तक

सर्वत्र देखने को मिलता है।


[२] आए जब दल बदल कर नेता नन्दूलाल

पत्रकार करने लगे, ऊल-जलूल सवाल

ऊल-जलूल सवाल, आपने की दल-बदली

राजनीति क्या नहीं हो रही इससे गँदली

नेता बोले व्यर्थ समय मत नष्ट कीजिए

जो बयान हम दें, ज्यों-का-त्यों छाप दीजिए


समझे नेता-नीति को, मिला न ऐसा पात्र

मुझे जानने के लिए, पढ़िए दर्शन-शास्त्र

पढ़िए दर्शन-शास्त्र, चराचर जितने प्राणी

उनमें मैं हूँ, वे मुझमें, ज्ञानी-अज्ञानी

मैं मशीन में, मैं श्रमिकों में, मैं मिल-मालिक

मैं ही संसद, मैं ही मंत्री, मैं ही माइक


हरे रंग के लैंस का चश्मा लिया चढ़ाय

सूखा और अकाल में 'हरी-क्रांति' हो जाय

'हरी-क्रांति' हो जाय, भावना होगी जैसी

उस प्राणी को प्रभु मूरत दीखेगी वैसी

भेद-भाव के हमें नहीं भावें हथकंडे

अपने लिए समान सभी धर्मों के झंडे


सत्य और सिद्धांत में, क्या रक्खा है तात ?

उधर लुढ़क जाओ जिधर, देखो भरी परात

देखो भरी परात, अर्थ में रक्खो निष्ठा

कर्तव्यों से ऊँचे हैं, पद और प्रतिष्ठा

जो दल हुआ पुराना, उसको बदलो साथी

दल की दलदल में, फँसकर मर जाता हाथी


शैल चतुर्वेदी (29 जून 1936 - 29 अक्टूबर 2007) हिंदी भाषा के कवि, व्यंग्यकार, गीतकार और अभिनेता के रूप में जाने जाते थे, वे 70 और 80 के दशक में अपने राजनीतिक व्यंग्य के लिए जाने जाते थे. प्रस्तुत हैं उनकी कविताएं -


[१] गाँधी कि गीता 

गरीबों का पेट काटकर

उगाहे गए चांद से

ख़रीदा गया शाल

देश (अपने) कन्धो पर डाल

और तीन घंटे तक

बजाकर गाल

मंत्री जी ने

अपनी दृष्टी का संबन्ध

तुलसी के चित्र से जोड़ा

फिर रामराज की जै बोलते हुए

(लंच नहीं) मंच छोड़ा

मार्ग में सचिव बोला-

"सर, आपने तो कमाल कर दिया

आज तुलसी जयंती है

और भाषण गांधी पर दिया।"


मूँछो में से होंठ बाहर निकालकर

सचिव की ओर

आध्यात्मिक दृष्टि डालकर

मंत्री जी ने

दिव्य नयन खोले

और मुस्कुराकर बोले-

"तुलसी और गांधी में

कैसे अंतर?

दोनों ही महात्मा

कट्टर धर्मात्मा

वे सतयुग के

ये कलयुग के

तुलसी ने रामायण लिखी

गांधी ने गीता

तुमने तुलसीकृत

वाल्मीकी रामायण पढ़ी है?

नहीं पढ़ी न!

मुझे भी समय नहीं मिलता

मगर सुना है-

आज़ादी कि रक्षा के लिए

राम और रावण में

जो महाभारत हुआ

उसका आँखो देखा हाल

रामायण में देकर

तुलसी ने कर दिया कमाल

और गांधी की गीता में

क्य

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