
कहते हैं कि साहित्य समाज के लिए अति आवश्यक है. साहित्य के बिना एक स्वस्थ समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती. साहित्य में कई विधाएँ हैं जो समाज को दिशा दिखातीं हैं, लेकिन संभवतः व्यंग ही साहित्य की एकमात्र ऐसी विधा है जो बड़ी ही सटीकता और निर्भीकता से समाज में व्याप्त कुरीतियों, रूढ़ियों और भृष्टाचार पर सीधे वार करती है.
यूँ तो हिंदी साहित्य में प्रारम्भ से ही व्यंग का प्रयोग होता आया है किन्तु पहले व्यंग्य को विधा नहीं माना जाता था बल्कि इसे (व्यंग्य) को हल्के-फुल्के, हंसी मजाक, ताने और मनोरंजन की लेखनी के रूप प्रयोग किया जाता था. साहित्य में व्यंग को विधा का दर्जा उस व्यंगकार ने दिलाया जो कहता था "मैं लेखक छोटा हूँ, पर संकट बड़ा हूँ." उस महान व्यंगकार का नाम था "हरिशंकर परसाई".
हिंदी साहित्य में परसाई ही पहले ऐसे रचनाकार माने गए हैं जिन्होंने व्यंग्य को हिंदी साहित्य में विधा का दर्जा दिलवाया और उसे ताने और मनोरंजन की लेखनी के सतही श्रेणी से उठाकर सामाजिक कुरीतियों और भृष्टाचार पर घातक वार करने वाली तलवार बनाया.
हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त 1924 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के जमाली गाँव में हुआ था . गांव से शुरुआती शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे नागपुर चले गए. 'नागपुर विश्वविद्यालय' से उन्होंने हिंदी में एम. ए किया और कुछ दिनों तक पढ़ाया. लेकिन उन्हें नौकरी करना रास नहीं आया अतः उन्होंने स्वतंत्र लेखन की शुरुआत की. परसाई ने जबलपुर से साहित्यिक पत्रिका 'वसुधा' का प्रकाशन भी किया, लेकिन आर्थिक पक्ष कमजोर होने व पत्रिका से लाभ न होने की वजह से उन्होंने इसे बंद कर दिया.
समाज को दिशा दिखाते हैं परसाई के कालजयी व्यंग - भले ही परसाई जी ने धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक बुराइयों, आडम्बरों और रूढ़िता पर दशकों पहले अपनी कलम चलाई हो लेकिन उनकी रचनाएँ आज के समय में भी प्रसांगिग हैं.
उन्होंने राजनीति पर कई व्यंग्य किये थें. उन्होंने लिखा -
"जनता जब आर्थिक न्याय की मांग करती है, तब उसे किसी दूसरी चीज में उलझा देना चाहिए, नहीं तो वह खतरनाक हो जाती है. जनता कहती है हमारी मांग है महंगाई बंद हो, मुनाफाखोरी बंद हो, वेतन बढ़े, शोषण बंद हो, तब हम उससे कहते हैं कि नहीं, तुम्हारी बुनियादी मांग गोरक्षा है. बच्चा, आर्थिक क्रांति की तरफ बढ़ती जनता को हम रास्ते में ही गाय के खूंटे से बांध देते हैं. यह आंदोलन जनता को उलझाए रखने के लिए है"
मनोविज्ञानिक दृष्टिकोण से भी परसाई जी ने सार्थक कटाक्ष किये हैं. उनके व्यंग मानव मन की बारीकियों के प्रति उनकी समझ को दर्शाते हैं. उन्होंने लिखा-
[1]"बेचारा आदमी वह होता है जो समझता है कि मेरे कारण कोई छिपकली भी कीड़ा नहीं पकड़ रही है. बेचारा आदमी वह होता है, जो समझता है सब मेरे दुश्मन हैं, पर सही यह है कि कोई उस पर ध्यान ही नहीं देता. बेचारा आदमी वह होता है, जो समझता है कि मैं वैचारिक क्रांति कर रहा हूं, और लोग उससे सिर्फ़ मनोरंजन करते हैं. वह आदमी सचमुच बड़ा दयनीय होता है जो अपने को केंद्र बना कर सोचता है."
[2] "'बेइज्जती में अगर दूसरे को भी शामिल कर लो तो आदी इज्जत बच जाती है."
[3]"सफेदी की आड़ में हम बूढ़े वह सब कर सकते हैं, जिसे करने की तुम जवानों की भी हिम्मत नहीं होती"
[4] “आत्मविश्वास धन का होता है, विद्या का भी और बल का भी, पर सबसे बड़ा आत्मविश्वास नासमझी का होता है ।”
धर्म और आस्था के नाम पर राजनेता हमेशा जनता को मूर्ख बना कर अपना उल्लू सीधा करतें आएं हैं. पारसी जी ने राजनीति की इस धूर्तता पर भी वार किया हैं. वो लिखते हैं कि-
[1 ]"अर्थशास्