
"ग़ालिब" कैसे बने "मिर्ज़ा ग़ालिब", जाने उनकी ज़िन्दगी से जुड़े कुछ रोचक तथ्य
हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज-ए-बयां और...
ये शेर खुद ग़ालिब ने अपने बारे में लिखा था. यक़ीनन ग़ालिब का अंदाज-ए-बयां सबसे जुदा और रूहानी था. आज भी ग़ालिब अपनी इबारत में ज़िंदा हैं. उनके शेर, उनका अंदाज-ए-बयां आज भी दिलों कि धड़कन बढ़ाने और जिस्म व रूह में लरजिश पैदा करने कि क़ुव्वत रखते हैं. ग़ालिब शेर-ओ -शायरी के अलावा चिट्ठी लिखने में भी माहिर थे. आइये जानते हैं ग़ालिब कि ज़िन्दगी से जुड़े कुछ दिलचस्प बातें-
मिर्ज़ा गालिब के बचपन का नाम मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब” था. उनका जन्म आगरा मे 27 दिसंबर 1797 को एक सैन्य परिवार मे हुआ था. उनका निधन 1869 मे हुआ था. गा़लिब हिन्दुस्तान में उर्दू अदबी दुनिया के सबसे अहम् शख्शियत में से एक थे . ग़ालिब के दादा तुर्क से भारत आए थे। वह फ़ारसी कविता को भारतीय भाषा में लोकप्रिय करने में माहिर थे. उन्हें पत्र लिखने का बहुत शौक था , उनकी इस खाशियत की वजह से उन्हें पुरोधा कहा जाता था .आज भी उनके पत्रों को उर्दू साहित्यं मे एक अहम विरासत माना जाता है.
ग़ालिब से मिर्जा ग़ालिब : बहादुर शाह ज़फर II ने 1850 ई. में गालिब को “दबीर-उल-मुल्क” और “नज़्म-उद-दौला” की उपाधि दी थी . साथ ही बहादुर शाह ज़फर II ने गालिब को “मिर्ज़ा नोशा” की उपाधि प्रदान की थी. "मिर्ज़ा नोशा " की उपाधि के बाद से ही ग़ालिब मिर्ज़ा ग़ालिब बने. ग़ालिब ने अपनी शायरी का बड़ा हिस्सा असद के नाम से भी लिखा है।
बहादुर शाह ज़फर II ने ग़ालिब को बनाया था अपना उस्ताद :-बहादुर शाह जफ़र को शायरी में काफी दिलचस्पी थी . इसलिए उन्होंने मिर्जा ग़ालिब को 1854 में अपना उस्ताद बनाया था. बाद में बहादुर शाह ज़फर ने गालिब को अपने बड़े बेटे “शहजादा फखरूदीन मिर्ज़ा” का भी शिक्षक नियुक्त किया था. इसके अलावा गालिब मुगल दरबार में शाही इतिहासविद के रूप में भी काम करते थे.
11 साल की उम्र लि