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मिथिला के प्रसिद्ध साहित्यकार!

हे तिरहुत, हे मिथिले, ललाम !

मम मातृभूमि, शत-शत प्रणाम !

-नागार्जुन


"यहाँ हर कदम-कदम पर धरती बदले रंग यहाँ कि बोली में रंगोली साथ रंग" देश रंगीला गाने का यह अंश भारत में भाषा विविधता को बताती है ,जहाँ लिखित दस्तावेज के मुताबिक २३ भाषाएँ बोली जाती हैं पर उसके अलावा भी कई लोक भाषाएं हैं जो इस देश में बोली और समझी जाती है ,ऐसे में जरुरी है इन भाषाओ के बारे में जानना। इस लेख में हम बात करेंगे उत्तर भारत और पूर्वी नेपाल में लगभग ७ करोड़ लोगो द्वारा बोली जाने वाली प्रमुख भाषा मैथिली की जिसे २००३ में भारतीय संविधान की ८ सूची में सम्मिलित किया गया है ,वही नेपाल के अंतरिम संविधान में इसे २००७ में एक छेत्रिय भाषा के रुप में स्थान दिया गया है। बात करें इस भाषा की लिपि की तो मिथिलाक्षर तथा कैथी लिपि में लिखी जाने वाली इस भाषा की समानताएं बंगाल और असमिया लिपि से मिलती है। इतिहास की प्राचीनतम भाषाओं में से एक मैथिली भाषा का प्रथम प्रमाण रामायण में मिलता है। जो त्रेता युग में मिथिलानरेश राजा जनक की भाषा थी। 

सरल सहज यह भाषा अपनी मधुरता से कितनो का दिल जीत लेती है। सादगी से भरी मैथिली भाषा अपनेपन की खुशबु लिए सभी को अपनी और आकर्षित कर लेती है। बात करें इसके साहित्य की तो मैथिली भाषा का अपना एक गंभीर और श्रेष्ठम साहित्य है जिसमे विद्यापति जैसे कई महाकविओं की गणना हैं। तो आइये पढ़ते हैं मिथिला साहित्यकारों की प्रसिद्ध रचनाओं को।


विद्यापति : मैथिल कवि कोकिल के नाम से जाने जाने वाले मैथिली के सर्वोप्रिय कवि जिन्होंने श्रृंगार-परंपरा के साथ-साथ भक्ति परंपरा को अपनी लेखनी में उतारा कवि विद्यापति। इनकी रचनाओं में मध्यकालीन मैथिली भाषा के स्वरुप का रूपांतरण देखने को मिलता है। आज भी उनकी रचनाएं मैथिली संस्कृति में विद्यमान हैं। उनकी कुछ कृति आपके समक्ष प्रस्तुत है :


[जय-जय भै‍रवि असुर भयाउनि]

जय-जय भै‍रवि असुर भयाउनि

पशुपति भामिनी माया

सहज सुमति वर दियउ गोसाउनि

अनुगति गति तुअ पाया


वासर रैनि सबासन शोभित

चरण चन्‍द्रमणि चूड़ा

कतओक दैत्‍य मारि मुख मेलल

कतओ उगिलि कएल कूड़ा


सामर बरन नयन अनुरंजित

जलद जोग फुलकोका

कट-कट विकट ओठ पुट पांडरि

लिधुर फेन उठ फोंका


घन-घन-घनय घुंघरू कत बाजय

हन-हन कर तुअ काता

विद्यापति कवि तुअ पद सेवक

पुत्र बिसरू जनि माता


-विद्यापति


[गौरा तोर अंगना]

गौरा तोर अंगना।

बर अजगुत देखल तोर अंगना।


एक दिस बाघ सिंह करे हुलना।

दोसर बरद छैन्ह सेहो बौना॥

हे गौरा तोर...


कार्तिक गणपति दुई चेंगना।

एक चढथि मोर एक मुसना॥

हे गौर तोर...


पैंच उधार माँगे गेलौं अंगना।

सम्पति मध्य देखल भांग घोटना॥

हे गौरा तोर...


खेती न पथारि शिव गुजर कोना।

मंगनी के आस छैन्ह बरसों दिना॥

हे गौरा तोर ।


भनहि विद्यापति सुनु उगना।

दरिद्र हरन करू धएल सरना॥


-विद्यापति


आरसी प्रसाद सिंह : मैथिली के महाकवि आरसी प्रसाद सिंह जिन्होंने रूप ,यौवन और प्रेम के कवी के रूप में ख्याति प्राप्त की आज बिहार के चार नक्षत्रों में वियोगी के साथ याद किये जाते हैं। 

साहित्य अकादमी से सम्मानित महाकवि आरसी प्रसाद सिंह द्वारा रचित कुछ रचना आपके समक्ष प्रस्तुत है :


[बाजि गेल रनडँक, डँक ललकारि रहल अछि]

बाजि गेल रनडँक, डँक ललकारि रहल अछि

गरजि—गरजि कै जन जन केँ परचारि रहल अछि

तरुण स्विदेशक की आबहुँ रहबें तों बैसल आँखि फोल,

दुर्मंद दानव कोनटा लग पैसल कोशी—कमला उमडि रहल,

कल्लौल करै अछि के रोकत ई बाढि,

ककर सामर्थ्यल अडै अछि स्वीर्ग देवता क्षुब्धँ,

राज—सिंहासन गेलै मत्त भेल गजराज,

पीठ लागल अछि मोलै चलि नहि सकतै आब सवारी

हौदा कसि कै ई अरदराक मेघ ने मानत,

रहत बरसि कै एक बेरि बस देल जखन कटिबद्ध “चुनौती”

फेर आब के घूरि तकै अछि साँठक पौती ?

आबहुँ की रहतीह मैथिली बनल—बन्दिगनी ?

तरुक छाह मे बनि उदासिनी जनक—नन्दिनी डँक बाजि गेल,

आगि लँक मे लागि रहल अछि अभिनव

विद्यापतिक भवानि जागि रहल अछि


-आरसी प्रसाद सिंह


नागार्जुन -मैथिली के श्रेष्ठ कवियों में विद्यमान कवि नागार्जुन जिन्होंने मैथिली के साथ हिंदी में भी कई श्रेष्ठ रचनाएं की हैं। नागार्जुन के काव्य में अब तक की पूरी भारतीय काव्य-परंपरा ही जीवंत रूप में उपस्थित देखी जा सकती है। उनका कवि-व्यक्तित्व कालिदास और विद्यापति जैसे कई कालजयी कवियों के रचना-संसार के गहन अवगाहन तथा लोकसंस्कृति एवं लोकहृदय की गहरी पहचान से निर्मित है। उनकी रचनाएं मैथिली संस्कृति में पूर्ण रूप से जीवित हैं। नागार्जुन द्वारा रचित मैथिली धाम को समर्पित कविता आपके समक्ष प्रस्तुत है :


[हे तिरहुत, हे मिथिले, ललाम]


हे तिरहुत, हे मिथिले, ललाम!

मम मातृभूमि, शत-शत प्रणाम !

तृण तरु शोभित धनधान्य भरित

अपरूप छटा, छवि स्निग्ध-हरित

गंगा तरंग चुम्बित चरणा

शिर शोभित हिमगिरि निर्झरणा

गंडकि गाबथि दहिना जहिना

कौसिकि नाचथि वामा तहिना

धेमुड़ा त्रियुगा जीबछ करेह

कमला बागमतिसँ सिक्त देह

अनुपम अद्भुत तव स्वर्णांचल

की की न फुलाए फड़ए प्रतिपल

जय पतिव्रता सीता भगवति

जय कर्मयोगरत जनक नृपति

जय-जय गौतम, जय याज्ञवल्कय

जय-जय वात्स्यायन जय मंडन

जय-जय वाचस्पति जय उदयन

गंगेश पक्षधर सन महान

दार्शनिक छला’, छथि विद्यमान

जगभर विश्रुत अछि ज्ञानदान

जय-जय कविकोकिल विद्यापति

यश जनिक आइधरि सब गाबथि

दशदिश विख्यापित गुणगरिमा

जय-जय भारति जय जय लखिमा

जय-जय-जय हे मिथिला माता

जय लाख-लाख मिथिलाक पुत्र

अपनहि हाथे हम सोझराएब

अपनेक देशक शासनक सूत्र

बाभन छत्री औ’ भुमिहार

कायस्थ सूँड़ि औ’ रोनियार

कोइरी कुर्मी औ’ गोंढि-गोआर

धानुक अमात केओट मलाह

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